SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 332
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भकि-योग-रहस्य ३१५ तेजस्वी तथा सुकृती आदि होनेका कारण भी इसीको निर्दिष्ट किया है, और इसीलिये स्तुति-वदनादिके रूपमें यह भक्ति अनेक नैमित्तिक क्रियाप्रोमें ही नही, किन्तु नित्यको षट् आवश्यक-क्रियाओंमे भी शामिल की गई है, जो कि सब आध्यात्मिक क्रियाएँ हैं और अन्तदृष्टिपुरुषो (मुनियो तथा श्रावको) के द्वारा प्रात्मगुरगोके विकासको लक्ष्यमे रखकर ही नित्य की जाती हैं और तभी वे प्रास्मोत्कर्षकी साधक होती है । अन्यथा, लोकिक लाभ, पूजा-प्रतिष्ठा, यश, भय, रूढि आदिके वश होकर करनेसे उनके द्वारा प्रशस्त अध्यवसाय नही बन सकता और न प्रशस्त अध्यवसायके बिना सचित पापो अथवा कर्मों का नाश होकर आत्मीय गुणोका विकाश ही सिद्ध किया जा सकता है । प्रत इस विषयमे लक्ष्यशुद्धि एव भावशुद्धिपर दृष्टि रखनेकी खास जरूरत है, जिनका सम्बन्ध विवेकसे है । विना विवेकके कोई भी क्रिया यथेष्ट फलदायक नही होती, और न विना विवेककी भक्ति सद्भक्ति ही कहलाती है।
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy