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________________ जेनी कौन हो सकता है ? ३०५ मदिरा श्रादिके त्यागसे जिसका श्राचररण पवित्र हो और नित्य स्नान श्रादिके करनेसे जिसका शरीर शुद्ध रहता हो, ऐसा शूद्र भी ब्राह्मरादिक वर्णोंके सदृश श्रावक-धर्मका पालन करनेके योग्य है । क्योकि जाति हीन प्रात्मा भी कालादिक लब्धिको पाकर जैन धर्मका अधिकारी होता है । इसी तरह श्रीसोमदेव आचार्यने भी, 'नीतिवाक्यामृत' के नीचे लिखे वाक्यमे, उपर्युक्त तीनो शुद्धियोके होनेसे शूद्रोको धर्म साधनके योग्य बतलाया है। "आचाराऽनवद्यस्व शूद्रानपि देवद्विजातितपस्विपरिकर्मसु योग्यान् ।" - शुचिरुपस्कार शरीरशुद्धिश्च करोति (४) रत्नकरण्ड श्रावकाचारमे स्वामी समन्तभद्राचार्य लिखते हैं कि सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्ग देहजम् । w देवा देव विदुर्भरमगुढाकारान्त रौजसम् ।। २८ ।। अर्थात् - सम्यग्दर्शनसे युक्त - जैनधर्मके श्रद्धानी - चाडाल पुत्रको भी गणधरादि देवोने 'देव' कहा है- श्राराध्य बतलाया है। उस की दशा उस अगारके सदृश है जो बाह्यमें भस्मसे प्राच्छादित होने पर भी प्रतरगमें तेज तथा प्रकाशको लिये हुए है और इस लिये कदापि उपेक्षणीय नही होता । इससे चाडालका जैनी बन सकना भली भाँति प्रकट ही नही किन्तु श्रभिमत जान पड़ता है। इसके सिवाय, सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति तो चौथे गुरणस्थानमे ही हो जाती है, चाडाल इससे भी ऊपर जा सकता है और श्रावकके व्रत धारण कर सकता है, जैसा कि ऊपर उल्लेख की हुई कथाप्रोसे प्रकट है। इसमें किसीको भी प्रापत्ति नही है। रविषेणाचार्यने तो 'पद्मपुराण' में ऐसे व्रती चाण्डालको 'ब्राह्मण' का दर्जा प्रदान किया है और लिखा है कि कोई भी जाति बुरी अथवा तिरस्कारके योग्य नहीं हैं सभी मुरणधर्मकी अधिका
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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