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________________ युगवीर-निबन्धावली दुःख-सुख-विवेक यहाँपर इतना और भी समझ लेना चाहिये कि बढी हुई जरूरियातके पूरा न होनेमे ही दुख नहीं है, बल्कि उनको पूरा करनेमे भी नाना प्रकारके कष्ट उठाने पडते है-- उनकी सामग्रीके जुटानेका फिक्र, जुटाई अथवा एकत्र की हुई सामग्रीकी रक्षाकी चिन्ता, रक्षित सामग्रीके खोए जाने या नष्ट हो जानेका भय और फिर उसके जूदा हो जाने, गिरने पडने, फूटने, गलने-सडने, बिगडने, मैली-कुचैली, बेत्राव और बेकार हो जानेपर दिलकी बेचैनी, परेशानी, अफसोस रज खेद और शोक, इष्ट सामग्रीके साथ अनिष्टका सयोग हो जानेपर चित्तकी व्याकूलता, घबराहट और उसके वियोगके लिये तडप, और साथही इन सबके ससर्ग अथवा सम्बधसे नई नई चीजोंके मिलने मिलाने या दूसरे साज-सामानके जोडनेकी इच्छा और तृष्णा । ये सब भी दुखकी ही पर्याये है उसीकी जुदागाना शकले अथवा विभिन्न अवस्थाएँ है। दु खके विरोधी सुखका लक्षण ही निराकुलता है और वह चिन्ता, भय, शोक, खेद, अफसोस, रज बेचैनी, परेशानी, आकुलता घबराहट, इच्छा, तृष्णा, बेताबी और तडप वगैरह दुखकी पर्यायोसे रहित होता है । जहाँ ये नहीं, वहाँ दुख नहीं और जहाँ ये मौजूद है वहाँ मुखका नाम नहीं । दूसरे शब्दोमे यो कहिये कि यदि द खकी ये पर्याय--शकलें और हालते-बनी हई है, तो कोई मनुष्य बाहरके बहुतसे ठाट-बाट, साज-सामान और वैभवके होते भी सुखी नहीं हो सकता। उदाहरण के लिये लीजिये, एक ऐसे मनुष्य को जिसे १०५ दर्जेसे भी ऊपरका बुखार ( ज्वर ) है और इसलिये उसकी बेचैनी और परेशानी बढी हुई है, उसको रेशमकी डोरीसे बुने हुए मखमल बिछे हुए सोने चाँदीके पलग पर लिटा देने और ऊपरसे कीमख्वाब का जरीदोज चंदोवा बाध देनेसे क्या उसके उस दु ख में कोई कमी हो
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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