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________________ १८० युगवीर-निबन्धावली प्योंको वह प्रेमको दृष्टिसे नहीं देखता और न निर्धन कगालो, मूखों तथा निम्नश्रेणीके मनुष्योको घृणाकी दृष्टिसे अवलोकन करता है, न सम्यग्दृष्टि उसके कृपापात्र हैं और न मिथ्यादृष्टि उसके कोपभाजन, वह परमानंदमय और कृतकृत्य है, सासारिक झगडोसे उसका कोई प्रयोजन नही । इसलिये जैनियोकी उपासना, भक्ति और पूजा, हिन्दुओ, मुसलमानो तथा ईसाइयोकी तरह, परमात्माको प्रसन्न करनेके लिये नही होती। उसका कुछ दूसरा ही उद्देश्य है जिसके कारण वे (समझदार जैनी) ऐसा करना अपना कर्तव्य समझते हैं और वह सक्षिप्तरूपसे यो है कि - ___ यह जीवात्मा स्वभावसे ही अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनतसुख, और अनन्तवीर्यादि अनन्त शक्तियोका आधार है । परन्तु अनादि कर्ममलसे मलिन होनेके कारण इसकी वे समस्त शक्तियाँ आच्छादित हैं-कर्मोंके पटलसे वेष्टित हैं और यह आत्मा ससारमे इतना लिप्त और मोहजालमे इतना फंसा हुआ है कि उन शक्तियोका विकास होना तो दूर रहा, उनका स्मरण तक भी इसको नहीं होता। कर्मके किंचित् क्षयोपशमसे जो कुछ थोडा बहत ज्ञानादि-लाभ होता है, यह जीव उतनेहीमे सतुष्ट होकर उसीको अपना स्वरूप मानने लगता है। इन्ही संसारी जीवोमेसे जो जीव, अपनी आत्मनिधिकी सुधि पाकर धातुभेदीके सदृश प्रशस्त ध्यानाग्निके बलसे समस्त कर्ममलको दूर कर देता है उससे प्रात्माकी वे सम्पूर्ण स्वाभाविक शक्तियाँ सर्वतोभावसे विकसित हो जाती हैं और तब वह आत्मा स्वच्छ तथा निर्मल होकर परमात्मदशाको प्राप्त हो जाता है और परमात्मा कहलाता है' । केवलज्ञान (सर्वज्ञता) की प्राप्ति होनेके पश्चात् जब तक देहका १. ध्यानाज्जिनेश भवतो भविन. क्षणेन, देहं विहाय परमात्मदशा व्रजन्ति । तीवानलादुपलभावमपास्य लोके,
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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