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________________ युगवीर-निबन्धावली कर देता है ? और कौन किसी शांतिमय राष्ट्रमें विप्लव खडा कर देता है ? उत्तर इन सबका एक है और वह है-साहित्य-शक्तिका प्रभाव । जिस समय जैसे जैसे साहित्यका प्राबल्य हमारे सामने होता है उस समय हमारा परिणमन भी उसी प्रकारका हो जाता है । साहित्यसे अभिप्राय यहा किसी भाषा-विशेषसे नहीं है और न केवल भाषाका नाम ही साहित्य हो सकता है, बल्कि भाषा भी एक प्रकारका साहित्य है अथवा साहित्यके प्रचारका साधन हैं। साहित्य कहते है भावांक वातावरणको और वह वातावरण शब्दो, भाषाओ, वार्तालापो, व्याख्यानो, चेष्टाओ, व्यवहारो, विचारो, लेखो, पुस्तको चित्रो आकृतियो, मूर्तियो और इतर पदार्थोके द्वारा उत्पन्न होता है अथवा उत्पन्न किया जाता है। इसलिये साहित्यके इन सब साधनोंको भी साहित्य कहते है। अथवा ये सब साहित्य प्रचारके मार्ग है। साहित्यके सामान्यत क्षणिक-स्थायी, चर-स्थिर, उन्नत-अवनत, सबल-निबल और प्रौढ-अप्रौढ ऐसे भेद किए जासकते है। परन्तु विशेषकी दृष्टिसे उसके शान्ति-साहित्य, शोक-मा०, प्रेम-सा०, हास्य-सा०, भय-सा०, काम-सा०, द्वेष-सा०, राग-सा० वैराग्य-सा०, सुख-सा०, दुख-सा०, धर्म-सा०, अधर्म-सा०, प्रात्म-सा०,मनात्म-सा०, उदार-सा०, अनुदारसा०, देश-सा०, समाज-सा०, युद्ध-सा०, कलह-सा०, ईर्ष्या-सा०, घृरणा-सा०, हिंसा-सा०, दया-सा०, क्षमा-सा०, तुष्टि-सा०, पुष्टिसा०, विद्या-सा०, विज्ञान-सा०, कर्म-सा०, क्रोध-सा०, मान-सा०, माया-सा०, लोभ-साहित्य, इत्यादि प्रमख्यात भेद हैं। बल्कि दूसरे शब्दोंमें यो कहना भी अनुचित न होगा कि स्थूलरूपसे भावोंके जितने भेद किये जा सकते हैं साहित्यके भी प्राय. उतने ही भेद हैं। शान्ति-साहित्य के सामने प्रानेसे, चाहे वह किसी भी द्वारसे पाया हो, यदि वह प्रबल है तो हम शान्त हो जाते हैं हमारा कोष जाता रहता है । शोक-साहित्यके प्रमावसे हम रोने लगते हैं-हमारा धेर्य
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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