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________________ विवाह-समुद्देश्य का खास उद्देश्य इन्ही सब बातोंकी पूर्ति करना है जो विवाहके उद्देश्योकी पूर्ति तथा गृहस्थाश्रमके पालनके लिये जरूरी हैं। भगवज्जिनसेनाचार्यने, मादिपुराणमें, इन सब प्राश्रमोंका क्रम इस प्रकारसे वर्णन किया है ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः। इत्याश्रमास्तु जैनानामुत्तरोत्तरशुद्धित ॥३६-१५३।। अर्थात्--ब्रह्मचारी, गृहस्थ वानप्रस्थ, और भिक्षक ये जैनियों' के चार आश्रम उत्तरोत्तर शुद्धिको लिये हुए हैं। इससे प्रकट है कि सब आश्रमोंसे पहला आश्रम 'ब्रह्मचारी प्राश्रम रक्खा गया है । यह आश्रम, वास्तवमे, सब प्राधमोकी नीव जमानेवाला है। जब तक इस आश्रमके द्वारा एक खास अवस्था तक पूरण ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए किसी योग्य गुरुके पास विद्याभ्यास नही किया जाता है, तब तक किसी भी प्राश्रमका ठीक तौरसे पालन नहीं हो सकता। इसके बिना वे सब पाश्रम बिना नीवके मकानके समान अस्थिर और हानि पहुंचानेवाले होते हैं । इसलिये सबसे पहले बालक बालिकाओंको एक योग्य अवस्था तक पूर्ण ब्रह्मचर्यके साथ रखकर उनकी शिक्षा और शरीरसंगठनका पूरा प्रबन्ध करना चाहिए, और इसके बाद कही उनके विवाहका नाम लिया जाना चाहिए। यही माता-पिताका मुख्य कर्तव्य है।। वह 'योग्य अवस्था' बालकोंके लिये २० वर्ष और बालिकाओके लिये १६ वर्षसे कम न होनी चाहिए। इससे पहले न वीर्य ही परिपक्व होता है और न विद्याभ्यास ही यथेष्ट बन पाता है। सारा ढाँचा कच्चा ही रह जाता है, जिससे आगे गृहस्थाश्रम-धर्म तथा समाज १ हिन्दुअोके यहाँ भी ये ही चार माश्रम इसी क्रमसे माने गये हैं:ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थो यतिस्तथा। एते गृहस्थप्रभवाश्चत्वार पृथगाश्रमाः।। --मनुस्मृतिः
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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