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________________ जिन-पूजाधिकार मीमासा १०१ द्वेष, आपसी वैमनस्य, धार्मिक भावोंके प्रभाव और हृदयकी संकीर्णता आदि कारणोंसे -- एक जेनी किसी दूसरे जैनीको अपने घरू या अपने अधिकृत मंदिरमे ही न श्राने दे अथवा श्राने तो दे किन्तु उसके पूजन कार्यमे किसी न किसी प्रकारसे वाधक हो जावे । ऐसी बातोंसे किसी व्यक्ति पूजनाऽधिकार पर कोई असर नही पड सकता । वह व्यक्ति खुशीसे उस मदिरमे नही तो अन्यत्र पूजन कर सकता है । अथवा स्वय समर्थ और इस योग्य होने पर अपना दूसरा नवीन मंदिर भी बनवा सकता है । अनेक स्थानोपर ऐसे भी नवीन मदिरोकी सृष्टिका होना पाया जाता है । यहाँ पर यदि यह कहा जाय कि श्रागम और सिद्धान्तसे तो दसों को पूजनका अधिकार सिद्ध है और अधिकतर स्थानो पर वे बराबर पूजन करते भी है, परन्तु कही कही दरसोंको जो पूजनका निषेध किया जाता है वह किसी जातीय अपराधके कारण एक प्रकारका तत्रस्थ जातीय दंड है, तो कहना होगा कि शास्त्रोकी प्रज्ञाको उल्लघन करके धर्मगुरुप्रोके उद्देश्य - विरुद्ध ऐसा दडविधान करना कदापि न्यायसंगत और माननीय नही हो सकता और न किसी सभ्य जातिकी ओरसे ऐसी प्रज्ञाका प्रचारित किया जाना समुचित प्रतीत होता है कि 'प्रभुक मनुष्य धर्म सेवन से वचित किया गया और उसकी सतानपरम्परा भी धर्मसेवनसे वचित रहेगी ।' सासारिक विषयवासनाश्रमे फँसे हुए मनुष्य वैसे ही धर्मकार्यों मे शिथिल रहते हैं, उलटा उनको दड भी ऐसा ही दिया जावे कि वे धर्मके कार्य न करने पावे, यह कहाकी बुद्धिमानी, वत्सलता और जातिहितैषिता होसकती है ? सुदूरदर्शी विद्वानोकी दृष्टिमे ऐसा दड कदापि आदरणीय नही हो सकता । ऐसे मनुष्योके किसी अपराधके उपलक्षमें तो वही दड प्रशसनीय हो सकता है जिससे धर्मसाधन तथा अपने श्रात्म-सुधारका और अधिक अवसर मिले और उसके द्वारा वे अपने पापोका शमन या सशोधन कर सकें- यह कि डूबतेको
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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