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सवासो गाथा स्तवन
(२७) || ढाल दशमी॥ ॥जं सुरसंघा सा सुरसंघा । अथवा एणे पुर कंबल कोइ न लेसी-ए देशी॥ अवर कहे पूजादिक ठामे, पुण्यवंध छे शुभ परिणामे । धर्म इहां नवि कोइ दीसे, जेम व्रत परिणामे मन हीसे ॥ १०५ ॥
व्याख्या-वली अपरमति कोइक एम कहे छे के पूजादिकने ठामे शुभ परिणामे पु. ण्यनो वंध छे, पण इहां धर्म कोइ दीसतो नथी. जेम व्रत परिणामे धर्म कहेतां चित्त हीसे छे, तेम पुष्पादिक आरंभ भणी पूजा धर्म कहेतां चित्त हीसतुं नथी. ॥ १०५ ॥ निश्चयं धर्म न तेणे जाण्यो, जे शैलेशी अंत वखाण्यो। धर्म अधर्म तणो क्षयकारी, शिवसुख दे जे भव जल तारी ॥१०६॥
व्याख्या-एम कहेछे ते मतीए निश्चय धर्म जाग्यो नयो. निश्चय धर्म जे शैलेशी त के० चउदमा गुणठाणाने छेहेडे वखाण्यो छे. ते धर्म केवो छ ? अधर्मनो क्षयकारी अथवा वीजो अर्थ एम छे जे धर्म अधर्म ए वनेनो क्षय करनारो छे, अने भवजल तारीने शिवमुख के० मोक्षसुख आपे एवो छे. उक्तंच धर्मसंग्रहण्या-"सो उभयखयहेज सेलेसीचरमसमयमावित्ति"-निश्चय धर्म जाण्यो होय तो तेहने विरहे पंचमे छठे गुणगणे सरखोज कहे पण पक्षपात न करे ।। १०६ ॥ तस साधन तुं जे जे देखे, निज निज गुणठाणाने लेखे। तेह धरम व्यवहारे जाणो, कारज कारण एक प्रमाणो ॥ १०७ ॥ __ व्याख्या-ते शैलीशी चरम समय भावी निश्चय धर्म तुं परंपराए साधन जेह निज निज के० पोतपोताने गुणाणे देखे छे तेहने व्यवहारे जाण. "संदुलाः प्रति वर्षवि पर्जन्यः" इति वचनात-कार्य कारण एक करी प्रमाण जे वस्तु रूपी उपचार पण प्रमाण छे. तेहनो निषेध तो पूनामांहे न संभवे, तो केम कहेवू ? जे पूजामांहे पुण्य होय पण धर्म न होय. ए विचारी जोजो ॥ १०७ ॥
एवंभूत तणो मत भाष्यो, शुद्ध द्रव्य नय एम वलि दाख्यो। निज स्वभाव परणति ते धर्म, जे विन्नाव ते भावज कर्म ॥ १०८॥
व्याख्या-एवंभूत नयनी अपेक्षाए भाष्यो ? शुद्ध द्रव्य नये वली एम देखायो छे. जेटलो निज स्वभावनो आविर्भाव ते धर्म, अने जेटलो विभावनो विलास ते भावकर्म जाणवो. ॥१०८॥ धर्म शुद्ध उपयोग स्वभावे, पुण्य पाप शुभ अशुभ विभावे । धर्म हेतु व्यवहारज धर्म, निज स्वभाव परणतिनो मर्म ॥ १०९ ॥
वच सुरेंजश्चामीकर तस्यच तथास