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________________ h सवासो गाथानुं स्तवन. ( २५ ) व्याख्या - वली तिहां महानिशीथमांहे द्रव्यस्तवनुं फल गेहिने के० गृहस्थने बार स्वर्ग दाख्युं. एम दानादिक चारनुं पण तेहज फल क. तेमाटे द्रव्यस्तव अणुव्रतादिक तुल्य गृहस्थधर्म जाणजो. यदुक्तं - " काकण जिणायतणेहिं मंडियसपल मेहणीव | दाणाइचकेण वि सड्डो गच्छिज्ज अचुयं ण परओ गोयमा " इत्यादि वचनात् ॥ ९५ ॥ हे अंगे द्रौपदीजी, जिनप्रतिमा पूजेय । सूरियाभपरे भावथीजी, एम जिनवर कहेय ॥ शुणो० ॥ ९६ ॥ व्याख्या-छठे अंगे श्री ज्ञाताधर्म कथाए अवदात प्रसिद्ध छे, जे द्रौपदीए श्री जिनप्रतिमा सूर्याभ देवतानी परे भावथी पूजी, एम श्री वीरपरमेश्वर कहे छे, कोइ कहेशे जे द्रौपदी भाविका नथी. ते उपर कहे छे. ॥ ९६ ॥ नारद आव्ये नवि थइजी, उभी तेह सुजाण । ते कारण ते श्राविकाजी, भाषे आल अजाण ॥ शुणो० ॥ ९७ ॥ व्याख्या- नारद आव्या तेहने असंयति जाणीने उभी न थइ. एह दृढ धर्मपणाने गुणे द्रौपदी शुद्ध श्राविका छे. ए कारण माटे ते श्राविकाज जाणवी. अजाण छे ते आल भाखे छे जे द्रौपदी श्राविका नथी. ॥ ९७ ॥ जिनप्रतिमा आगल कह्योजी, शक्रस्तव तेणे नार । जाणे कुण विण श्राविकाजी, एह विध हृदय विचार ॥ शुणो० ॥ ९८ ॥ व्याख्या - हवे ते नारी द्रौपदीए जिनप्रतिमानी आगल शक्रस्तव के० नमोत्थुर्ण भा स्तवनाए को, तो हवे श्राविका विना एह जिनप्रतिमा पूजवानी विधि कोण जाणे ? माटे हृदयमां विचारी जुओ के जो ए मिथ्यादृष्टि होय तो नागादिक प्रतिमा आगले दंडaa करी पुत्रादिकनी याचना करे. ॥ ९८ ॥ पूजे जिनप्रतिमा प्रतेजी, सूरियाभ सुरराय । वांची पुस्तक रत्ननांजी, लेइ धर्म व्यवसाय ॥ शुणो० ॥ ९९ ॥ व्याख्या- सूर्याभ सुरराज, जिनमतिमाने रत्ननां पुस्तक धर्मशास्त्ररूप छे ते वांची, धर्म व्यवसाय ग्रहीने पूजे. ॥ ९९ ॥ रायपसेणी सूत्रमांजी, मोहोटो पह प्रबंध । एह वचन अणमानतांजी, करे करमनो बंध ॥ शुणो० ॥ १०० ॥ व्याख्या - रायपसेणी सूत्रमांहे एह मोहोटो प्रबंध कह्यो छे. एह वचन जे नयी मानवा, वच सुरेंद्रश्चामीकर तस्यच 1
SR No.010663
Book Title125 150 350 Gathaona Stavano
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDanvijay
PublisherKhambat Amarchand Premchand Jainshala
Publication Year
Total Pages295
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, & Religion
File Size14 MB
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