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________________ २२६ ) लब्धिसार [ गाथा २८६ चयको आदिरूप स्थापित करना, क्योकि द्वितीयकृप्टिमे एक चय देना है। एक चय उत्तर ( आगे ) स्थापित करना, क्योकि, तृतीयादि कृष्टियोमे क्रमशः एक-एक चय अधिक देना है । तथा एककम पूर्वकृष्टि प्रमाण गच्छ स्थापित करना चाहिए, क्योकि प्रथमकृष्टि मे चय नही मिलाना है। ऐसे स्थापित करके "पदमेगेण विहीण" इत्यादि श्रेणिव्यवहाररूप गणितसूत्र से एक कम गच्छको दो का भाग देकर, उसको (लब्धको) उत्तरसे (जो कि एक चयरूप है, उससे) गुणा करके उसमे प्रभव अर्थात् आदिके एक चयको मिलानेपर तथा फिर गच्छसे गुणा करने पर चयधन प्राप्त होता है । अकसदृष्टि की अपेक्षा-जैसे एक कम कृष्टिप्रमाण गच्छ ७, इसमे से एक घटाने पर छ' आये। ६ मे २ का भाग देनेपर ३ आये । इसे चय (१६) से गुणा करनेपर ४८ आये । इसमे प्रभव (एक चय यानी १६) को मिलाने पर ६४; पुनः इसको गच्छ (७) से गुणा करने पर ४४८ चयधन होता है । इस विधानसे जो प्रमाण आवे उतना अधस्तन शीर्ष विशेषद्रव्य जानना' । अब जो पूर्वकृष्टिमे से प्रथमकृष्टिका प्रमाण था उसीके समान १. अब इसके (पूर्वकृष्टिके) नीचे अपूर्वकृष्टिको रचना करता है वे ४ हैं तथा वे प्रथमपूर्वकृष्टिके तुल्य-तुल्य ही है अर्थात् २५६-२५६ परमाणु प्रमाण हैं अतः द्वितीय समयमे अधस्तन कृष्टिद्रव्य २५६४४=१०२४ हुआ; तब सदृष्टि इसप्रकार होगी |-चरमपूर्वकृष्टि युक्त है। अधस्तनशीर्ष विशेप द्रव्यसे प्रथमसमयकृत पूर्व कृष्टिया जो २५६ २५६ २५६ - - - २५६ - २५६ २५६ - प्रथमपूर्वकृष्टि - चरम अपूर्वकृष्टि कृष्टिया समयकृत अपूर्व -द्वितीय - २५६ २५६ - | अपूर्वसमपट्टिका २५६ - प्रथम अपूर्वकष्टि । जय ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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