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________________ क्षपणासार ३६ ] [ गाथा ३७-३८ स्थितिसत्त्व वेदनीयकमका होता है । इसक्रमसे पृथक्त्व स्थितिकाण्डकोंके बीत जानेपर मोहनीयकर्म स्थितिसत्त्व सबसे कम है, उससे तीन घातियाकर्मोका असख्यातगुणा, उससे नाम व गोत्रकर्मका असंख्यातगुणा और विशेष अधिक स्थिति सत्त्व वेदनीयकर्मका होता है। इसप्रकार अन्त में नाम व गोत्रके स्थितिसत्त्वसे वेदनीयकर्मका स्थिति सत्त्व साधिक हो जाता है । तब मोहादिकर्मके क्रमसे स्थितिसत्त्वका क्रमकरण होता है'। तीदे बंधलहस्से पल्लासंखेज्जयं तु ठिदिबंधे । तत्थ असंखेज्जाणं उदीरणा समयबद्धाणं ॥३७॥४२८॥ अर्थ.--इस क्रमकरणसे आगे सख्यात हजार स्थितिबन्ध बीत जानेपर पल्यके प्रसख्यातवेंभागमात्र स्थितिबन्ध होता है तब असंख्यात समय प्रबद्धोंको उदीरणा होती है । विशेषार्थ:-यहाँसे पूर्व में अपकर्षण किये हुए द्रव्यको उदयावलिमें देनेके लिए असंख्यातलोकप्रमाणभागहार सम्भव था वहा समयप्रबद्धके असख्यातवेंभागमात्र उदीरणाद्रव्य था उसका नाशकरके अब परिणामोकी विशुद्धताके कारण सर्ववेद्यमान कर्मोका उदीरणारूप द्रव्य असंख्यातसमयप्रबद्धप्रमाण हो जाता है । इसप्रकार स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्वसम्बन्धी कमकरणका कथन पूर्णकरके ८ कषाय व १६ प्रकृतियोंका क्षपणकरणाधिकार प्रारम्भ करते हैं-- *ठिदिबंधसहस्सगदे, अटकसायाण होदि संकमगो। ठिदिखंडपुत्रेण य, तट्ठिदिसंतं तु आवलियविद्धं ॥३८॥ १. क० पा० सु० पृ० ७५० सूत्र ८२ से १९२ जयघवल मूल पृष्ठ १९६२-६३ । २. यह गाथा ल० सा० गाथा २३८ के समान है। जयधवल मूल पृष्ठ १९६३ । क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५१ सूत्र १६३-१९४ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३५५ । ३. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५१ सूत्र १६३-६४ । ४ क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५१ सूत्र १९५ से १६७ । जयधवल मूल पृष्ठ १९६३ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३५५-५६ । अट्ठकसायाणमपच्छिमट्ठिदिखंडए चरमफालिसरूवेण णिल्लेविदे तेसिमावलियपविठ्ठसंतकम्मस्सेव समयूणावलियमेत्तणिसेगपमाणस्स परिसेससत्तसिद्धीए णिव्वाहमुवलभादो। (जयधवल मूल पृ० १९६३)
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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