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________________ २२४ ॥ लब्धिसार [ गाथा २८६ कृष्टियोके नीचे जो अपूर्वकृष्टियां उत्पन्न की जाती हैं वे उनसे असख्यातगुणी हीन जानना चाहिए। इसप्रकार कृष्टिकरण कालका अन्तिमसमय प्राप्त होने तक प्रतिसमय जो अपूर्वकृष्टिया रची जाती है वे अनन्तरपूर्ववर्ती कृष्टियोसे असख्यातगुणो हीन होती है, क्योकि अपकर्षित समस्त द्रव्यके असख्यातवेभागप्रमाण द्रव्यको ही अपूर्वकृष्टियोमे आगमानुसार सिंचित कर शेष बहुभागप्रमाण द्रव्यको उपरिम पूर्वकी कप्टियोमे और स्पर्धकोमे अपने-अपने विभागानुसार विभाजितकर निषेकोकी रचना करता है । प्रथम समयमे कृष्टियोंमे सबके जोड़रूपसे निक्षिप्त हुआ द्रव्य अपकर्पित किये गए समस्त द्रव्यके असख्यातवेभागप्रमाण होकर सबसे अल्प हो जाता है। तदनन्तर दूसरे समयमे विशुद्धिके माहात्म्यवश असख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षणकर उसमेसे असख्यातवेभागप्रमाण द्रव्यको ग्रहणकर पूर्वानुपूर्वीरूपसे स्थित कृष्टियोमे सिचित किया जाने वाला द्रव्य पूर्वके द्रव्यसे असख्यातगुणा होता है, क्योकि तत्काल अपकर्षित किये जाने वाले द्रव्यमे से कृष्टियोमे दिये जाने वाले द्रव्यकी उसीके प्रतिभाके अनुसार प्रवृत्ति देखी जाती है। इसीप्रकार अन्तिमसमयके प्राप्त होने तक तृतीयादि समयोमे भी प्ररूपणा करना चाहिए। अथानन्तर कृष्टिगत द्रव्यों के विभागका निर्देश करते हैंहेट्ठासीसे उभयगदव्वविलेसे य हे?किट्टिम्मि । मज्झिमखंडे दव्वं विभज्ज विदियादि समयेसु ॥२८६॥ अर्थ-कृष्टिकरणकालके द्वितीय समयमे अपकर्षित द्रव्यको १. अधस्तन शीर्ष विशेपोमे २ उभयद्रव्य विशेषोमे ३ अधस्तनकृष्टियोमे ४ मध्यम खण्डोमे । इसप्रकार चारप्रकारके विभागसे निक्षिप्त करता है। . विशेषार्थ-पूर्वसमयमे की गई कृष्टियोमे से प्रथमकृष्टिमे बहुत परमाणु हैं । द्वितीयादि कृप्टियोमे एक-एक चयसे हीन क्रम लिये परमाणु हैं। यहां पूर्वकृष्टियो मे सम्भावित चयका प्रमाण लाकर द्वितीयकृष्टिमे एक चय, तृतीयकृष्टिमे दो चय, चतुर्थकृप्टिमे तीन चय ऐसे क्रमसे एक-एक बढते हुए चयप्रमाण परमाणु उन द्वितीयादि कप्टियोमे मिलाने पर सर्वकृष्टिया प्रथमकृष्टिके समान हो जाती है इसप्रकार जितना १. ज. प. पु. १३ पृ २०८-२०६ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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