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________________ गाथा ३०७ ] लब्धिसार [ २४७ विशेषार्थ - गाथोक्त २५ प्रकृतियोके उदय होनेके काल में आत्माके विशुद्ध सक्लेश परिणामों मे जैसी हानि वृद्धि होती है वैसी ही हानि वृद्धि इन २५ प्रकृतियो के अनुभागोद मे होती है । आत्म परिणामके अनुसार इन २५ प्रकृतियो के अनुभागका उत्कर्षरण - प्रपकर्षरण होकर उदय होता है इसलिये ये २५ प्रकृतिया परिणामप्रत्यय है । समग्र उपशातकाल के भीतर केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरणका अवस्थित अनुभागोदय होता है, क्योकि उपशान्तकालमे आत्माके परिणाम अवस्थित होते है । निद्रा और प्रचला वोदयी प्रकृतिया है इसलिये इनका कदाचित् उदय नही होता । यदि इनका उदय होता है तो जबतक इनका उदय रहता है तबतक अनुभागवेदन अवस्थित होता है, क्योकि आत्मपरिणाम अवस्थित होते है । आत्मपरिणाम अवस्थित होनेके कारण अन्तरायकर्मकी पाचो प्रकृतियोका अनुभागवेदन भी अवस्थित होता है । यद्यपि इन प्रकृतियोकी क्षयोपशमलब्धि होने से छह वृद्धियो और छह हानियों के द्वारा नीचेके गुणस्थानोमे उदय सम्भव है तो भी उपशातकषाय गुणस्थानमें इन प्रकृतियों का अनुभाग उदय ग्रवस्थित ही होता है, क्योकि अवस्थित एक भेदरूप परिणामके होने पर परिणामके ग्राधीन इनके उदयका द्वितीय प्रकार सम्भव नही है । मति श्रुत अवधिमन.पर्यय ये चार ज्ञानावरण, चक्षु अचक्षु अवधि ये तीन दर्शनावरण, इन लब्धि कर्माशो का अनुभागोदय अवस्थित ही होता है; यह नियम नही है, किन्तु उनके अनुभागोदयकी वृद्धि हानि अवस्थान ये तीन स्थान होते है । जिन प्रकृतियोका क्षयोपशमरूप परिणाम होता है वे लब्धिकर्माण होती है, क्योकि क्षयोपशमलब्धि होकर कर्माशोकी लब्धिकर्माश सज्ञा सिद्ध हो जाती है । यद्यपि ज्ञानावरण- दर्शनावरणकी उक्त सात प्रकृतियां परिणाम प्रत्यय है तथापि उनकी छह प्रकारकी वृद्धि, छह प्रकारकी हानि और श्रवस्थान उपशातकषायमे सम्भव है ऐसा उपदेश पाया जाता है । उपशातकषायमे यदि अवधिज्ञानावरणका क्षयोपशम नही है तो अवस्थित अनुभागोदय होता है, क्योकि अनवस्थितपनेका कारण नही पाया जाता । यदि क्षयोपशम है तो छहवृद्धियो, छह हानियो और अवस्थितक्रमसे अनुभागका उदय होता है, क्योकि देशावधि और परमावधिज्ञानी जीवोमे प्रसख्यातलोकप्रमाण भेदरूप अवधिज्ञानावरण सम्बन्धी क्षयोपशमके श्रवस्थित परिणाम होने पर भी वृद्धि, हानि और अवस्थानके बाह्य और अभ्यन्तर कारणोकी अपेक्षा तीन स्थानोके होनेमे विरोधका अभाव है । इस कारण सबसे उत्कृष्ट क्षयोपशमसे परिणत हुए उत्कृष्ट
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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