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________________ [ १०६ गाथा ११७-११६ ] लब्धिसार चारित्रमोहोपशामना और चारित्रमोहक्षपणा में अन्तरकरण सम्भव है, अन्यत्र नही ऐसा नियम है । अनिवृत्तिकरणमे हजारों स्थितकाण्डक और हजारो अनुभागकाडकों के हो जानेपर अनिवृत्तिकरणकालका संख्यात बहुभाग बीत जाता है। पश्चात् विशेष घात वश अनन्तानबन्धी सत्कर्म असंज्ञियोके स्थितिबन्ध के समान हो जाता है। उसके पश्चात् संख्यातहजार स्थितिकाण्डको के होने पर स्थिति सत्कर्म चतुरिन्द्रिय जीवोके स्थितिबन्धके समान होता है । इसप्रकार त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, एकेन्द्रिय के स्थितिबन्धके समान स्थितिसत्कर्म हो जानेपर पुनः पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्म हो जाता है । तत्पश्चात् शेष स्थितिके संख्यात बहुभागप्रमाण स्थितिकाडक को ग्रहण करता हुआ अनन्तानुबन्धीका दुरापकृष्टिप्रमाण सत्कर्म करके पश्चात् शेष स्थितिके असख्यात बहुभागका घात करता हुआ सख्यातहजार स्थितिकाडको के जाने पर अनन्तानुबन्धी के उदयावलि बाह्य समस्त स्थितिसत्कर्मको अनिवृत्तिकरणके अन्तिमसमय मे, पल्योपमके असख्यातवेभागप्रमरण आयामवाले अन्तिम स्थितिकांडक सम्बन्धी अन्तिमफालिरूप से बध्यमान शेष कषायो और नो कषायोमे सक्रमित कर प्रकृत क्रियाओ को समाप्त करता है । इसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्तकाल तक विश्राम करता है । अब अनन्तानुबन्धोकी विसंयोजना वाले जीवके विसंयोजनाके अनन्तर होने वाले कार्यको ११ गाथाओं द्वारा कहते हैं अंतोमुहूत्तकालं विस्समिय पुणोवि तिकरणं करिय । अणियट्टीए मिच्छं मिस्सं सम्मं कमेण णासेइ ।।११७॥ 'अणियट्टिकरणपढमे दंसणमोहस्स सेसगाण ठिदी। सायरलक्खपुधत्तं कोडीलक्खगपुधत्तं च ॥११॥ "श्रमणंठिदिसत्तादो पुत्तमेचे पुधत्तमेत्ते य । ठिदिखंडेय हवंति ह चउ ति वि एयक्ख पल्लठिदी ॥११॥ १ ज. ध पु १३ प्रस्तावना पृ २०; ज. घ. पु. १३ पृ. २०० । २. ज. ध. पु १३ पृ. २००-२०१, ध. पु. ६ पृ २५१ । ३ ज ध पु १३ पृ. ४१, ध पु. ६ पृ २५४ । ज ध पु १३ प ४१-४२-४३ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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