SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 391
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा १०४ ] लब्धिसार [ ८६ अपकृष्टावशिष्ट द्रव्य कहते है, उस द्रव्यमे से, अन्तरायामके निषेकोका अभाव था उन निषेकोका सद्भाव करने के लिये कितना एक (कुछ) द्रव्य दिया जाता है । उस देय द्रव्य का कितना प्रमाण है यह जाननेका विधान कहते है नानागुणहा निमे स्थित सम्यक्त्वप्रकृतिकी द्वितीय स्थितिके द्रव्यको अपकर्षण भागहार का भाग देकर एक भाग पृथक् करके अवशिष्ट बहुभागप्रमाण द्रव्यमे "द्विवडगुणहाणिभाजिदे पढमा"' इस सूत्र द्वारा साधिक डेढगुणहा निप्रमाणका भाग देने पर उस द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकका प्रमाण प्राप्त होता है, सो इसके बराबर अतरायामके सर्व निषेकोको चय रहित स्थापित करके जोडनेसे आदिधनका प्रमाण प्राप्त होता है। 'पदहतमुखमादिधन'२ इस करण सूत्रसे अन्तरायामप्रमाण गच्छसे उस प्रथम निषेकको गुणा करने पर अन्तरायामके निषेकोका आदिधन प्राप्त हुआ । तथा द्वितीय स्थितिके 'नीचे अन्तरायामके निषेक है इसलिये द्वितीयस्थितिके आदि निषेकसे चय वृद्धि (बढते) क्रमसे अन्तरायामके निषेक है । चयका प्रमाण प्राप्त करने की विधि कहते है द्वितीय स्थितिकी प्रथमगुणहानिके प्रथमनिषेक से अधस्तनवर्ती अन्तरायाम सम्बन्धी गुणहानिके प्रथम निषेकका द्रव्य दोगुणा प्रमाण युक्त चय है। इसको दो गुणहानिका भाग देनेपर अन्तरायाममे चयका प्रमाण प्राप्त होता है । "सकपदाहतपददलचयहतमुत्तरधन" इस सूत्रसे यहा अन्तरायामप्रमाण गच्छ है, सो एक अधिक गच्छसे गच्छके आधेको गुणा करके पुनः चयसे गुणा करनेपर उत्तरधन प्राप्त होता है। इसप्रकार प्राप्त आदिधन और उत्तरधन (चयधन) को जोडनेपर जो प्रमाण प्राप्त हा उतना द्रव्य उक्त अपकृष्टावशिष्ट द्रव्य से ग्रहणकर अन्तरायाममे देना। द्वितीय १. इसका अर्थ-प्रथमगुणहानिकी प्रथमवर्गणाका द्रव्य=सर्वद्रव्य-साधिक डेढगुणहानि । ( गो जी. गा. ५६ की टीका व ध. पु. १० पृ. १२२ ) २ भादिद्रव्यको पदसे गुणा करने पर प्रादिधनका प्रमाण निकलता है। ( गो जी. गा. ५१ की टीका; गणितसारसंग्रह अ. २।६३ ) । ३ इसका अर्थ-एक अधिक पदसे गुरिणत ‘पदका आधा' गुणित चय= उत्तरधन ( पद+१)x ( पद) चय= (पद+१) पदxचय =उत्तरधन । यहा "व्यैकपदार्धघ्न चयगुणो गच्छ उत्तर धन" सत्र नही लगता, क्योकि अन्तरायामके निषेको को द्वितीय स्थितिके प्रथम निपेकवत माननेपर कोई भी निषेक अन्तरायामका सर्वहीन निषेक भी नही बनता। अन्तरायामका सर्वहीन निषेक भी एक चयसे अधिक करने पर बनेगा अतः "सैकपदाहत..." इत्यादि कहा।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy