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________________ [ गाथा ४६ ४० ] लम्बिसार विशुद्धिसे द्वितीय निर्गणाकांडक्के प्रथमसमयकी (४३) जघन्यविशुद्धि अनन्तगुणी है, क्योंकि प्रथमसमयकी उत्कृष्टम्भुिद्धि 'उर्वक ल्पसे अवस्थित है और द्वितीयनिर्वर्गणाकांडकके प्रथमतमयकी जघन्यविशुद्धि 'अप्टांक' रूपते अवस्थित है इसलिये अनन्तगुणी हो गई। उससे प्रयननिर्वर्गणानांडकके दूसरेसमयकी उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी है, क्योकि पूर्वकी जघन्यविशुद्धि दूसरे नमश्के अन्तिमखण्डके जघन्यपरिणामस्वरूप है और यह उत्कृप्वविशुद्धि असंत्यातलोप्रमाण पत्यानवृद्धिको उल्लंघकर स्थित हुए दूसरे नमयके अन्तिमखंडकी उत्कृष्टविशुद्धि है, इसलिये यह उत्कृष्टविशुद्धि पूर्वकी जघन्यविशुद्धिसे अनन्तगुणी सिद्ध हो जाती है । इस पद्धतिसे अन्तर्मुहूर्तकालप्रमाण एक निर्गणाकाण्डकको अवस्थितकरके उपरिम और अधस्तन जघन्य और उत्कृष्टपरिणामोंसे अल्पबहुत सावना चाहिए । अन्यबहुन्त्रका यह क्रम सर्व निर्वर्गणाकाण्डकोंको क्रमले उल्लंयकर पुनः हिवरमनिर्वर्गणानांके अन्तिमसमयकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे अवःप्रवृत्तकरणके अन्तिम निवर्गणाकांकजी जघविशुद्धि अनन्तगुणी होकर जघन्यविशुद्धिका अन्त प्राप्त होनेतक करना चाहिए। इतनी दूर तक जो एक-एक निर्वर्गणाकाण्डकके अन्तरसे जघन्य और उत्कृष्ट विशुद्धिस्थानोंग अल्पवहुत्व कहा गया है उसमें कोई भेद नहीं है। इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-प्रथननिर्वर्गणाकांडकके दूसरे सनयकी (४३ की) उत्कृष्टविशुद्धिसे दूसरे निवर्गणाकांडकके दूसरे समयकी (४४ की) जयन्यविशुद्धि अनन्तगुणी है, इसने प्रयननिर्गरणाकांडकके तीसरेसमयकी (४४ की) उप्ठन्शुिद्धि अनन्तगुणी है. इसने द्वितीयनिर्वर्गणाकांडकके तीसरेसमयकी (४५ की) जयन्यविशुद्धि अनन्तगुणी है, इससे प्रथमनिर्वर्गणाकांडकके चौथेसमयकी (४५ को) उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी है । इसप्रकार दूसरे निर्वर्गणाकांउकके अंतिमसन्नी जयन्यविशुद्धिपर्यन्त अनन्तगुणत्व ले जाना चाहिए । इसीप्रकार तृतीय निर्वगंगानगंड के सनयोंकी जयन्यविशुद्धि और द्वितीयनिर्वर्गणाकांडकके समयोंकी उत्कृष्टविगुटिका परस्पर अव्यवहुन्त्र कहना चाहिये । इसीप्रकार अनन्तर उपरिम निर्वर्गणा राहकके जवन्यपरिणानोका नन्तर अवस्तन निर्गणाकांडकके उत्कृष्टपरिणामोंके नाय ने अनुसन्धान करते हए. अधःप्रवनकरणके अन्तिमसमयकी जघन्यविशुद्धि हिनन्दिगगाडको अन्तिमसमयकी उत्कृष्टविद्धिसे अनन्तगणी होकर जघन्यवित्रियों कन्नको प्रान होती है: रहा ले जाना चाहिए । पुनः हिवरमनिर्वनणामा.पने अन्तिनम्म्यको (५: श्री) उत्कृष्टविद्धिने प्रवःप्रवृत्तकरणके अंतिमसमयकी
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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