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________________ गाथा २३-२४ ] लब्धिसार अथानन्तर सप्तमपृथ्वीमें बन्धप्रकृतियोंको कहते हैंतं रणदुगुच्चहीणं तिरियदु णीच जुद पयडिपरिमाणं । उज्जोवेण जुई वा सत्तमखिदिगो हु बंधति ॥२३॥ अर्थ-उनं (पूर्वोक्त ७२ प्रकृतियों) मे से मनुष्य द्विक ( मनुष्यगति, मनुष्य गत्यानुपूर्वी ) और उच्चगोत्रको कम करनेसे तथा तिर्यचगतिट्टिक (तिर्यचगति, तिर्यच गत्यानुपूर्वी) व नीचंगोत्रको मिलानेपर ७२ प्रकृतिया होती है। यदि उद्योतप्रकृति मिलाई जाती है तो ७३ प्रकृतिया हो जाती है । उन ७२ अथवा ७३ प्रकृतियोको (प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख) सातवीपृथ्वीको मिथ्यादृष्टि नारकी बाधता है । विशेषार्थ- सम्यक्त्वंके अभिमुख सप्तमपृथ्वीको मिथ्यादृष्टि नारकी बन्धापसरण कर चुकनेके पश्चात् जिन ७२ प्रकृतियोका बन्ध करर्ती है वे इसप्रकार हैपाचज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी आदि १६ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, तिर्यचगति, पचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसस्थान, औदारिकशरीरअङ्गोपाङ्ग, वजर्षभनाराचसंहनन, वर्ण, गध, रस, स्पर्श, तिर्यचगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात; उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश कीति, निर्माण, नीचगोत्र और पाचो अन्तराय ये ७२ प्रकृतिया है । उद्योत प्रकृतिको कदाचित् बांधता है और कदाचित् नही बाधता है। यदि बाधता है तो ७३ प्रकृतियोका बन्धे होता है । इसप्रकार सम्यक्त्वके अभिमुखमिथ्यादृष्टिजीवके प्रकृतिबन्ध-प्रबन्धका विभाग समाप्त हुआ। . अथानन्तर स्थिति-अनुभागबन्धभेदका कथन करते हैं अंतोकोडाकोडीठिदि असत्थाण सस्थगाणं च । - बिचउट्ठाणरसं च य बंधाणं बंधणं कुणदि ॥२४॥ अर्थ- (सम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टि) वधनेवाली प्रकृतियोंका स्थितिबंध अन्तःकोटाकोटीसागरोपमप्रमाण करता है । अप्रशस्तप्रकृतियोका द्विस्थानीय अनुभागवध करता है और प्रशस्तप्रकृतियोंका चतु स्थानीय अनुभागवन्ध करता है । १. ध. पु. ६ प. १४२-४३ । ज. ध पु. १२ पृ. २१२ ॥
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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