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________________ ४ ] लब्धिसार [ गाथा ३ सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेके योग्य होता है ' । विमर्शकका अर्थ है किसी तथ्यका अनुसवान, किसी विपयका विवेचन या विचार | सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि अथवा वेदकसम्यग्दृष्टिजीव प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त नही होता है, क्योकि इन जीवोके प्रथमोपशमसम्यक्त्वरूप परिणमन होनेकी शक्तिका अभाव है । उपशमश्र णिपर चढनेवाले वेदकसम्यग्दृष्टिजीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाले होते हैं, किन्तु उस सम्यक्त्वका 'प्रथमोपशमसम्यक्त्व' यह नाम नही है, क्योकि उस उपशमश्र णिवाले उपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति सम्यक्त्वपूर्वक होती है इसलिये प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाला मिथ्यादृष्टि ही होना चाहिए । अथानन्तर सम्यक्त्वोत्पत्तिसे पूर्व मिथ्यात्वगुणस्थानमें जो पांचलब्धियां होती हैं उनका व्याख्यान करते हैं अर्थ - क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य व करणलब्धि ये पाच लब्धियां है उनमेसे चार लब्धिया तो सामान्य है तथा कररणलब्धिके होनेपर ( उपशम) सम्यक्त्व या चारित्र अवश्य होता है । विशेषार्थ - यहा गाथामे जो 'सामण्णा' शब्द है इसका प्रयोग आगे गाथा ७ व १५ मे भी हुआ है, किन्तु प्रत्येकगाथामे 'सामण्णा' शब्द विभिन्न विषयोका द्योतक हे । यहापर 'करण सम्मत्तचारिते' से यह स्पष्ट हो जाता है कि करणलब्धिसे पूर्वकी 'खयवसमियविसोढी देणपाउग्गकरणलद्धि य । चत्तारि वि सामण्णा करणं सम्मत्तवारिते ॥ ३ ॥ ज ध. पु १२ पृ २०३ - २०४ २ 'नम्यन्दृष्टिरेव द्वितीयोपशम प्राप्नोति, ' ध. पु १ पृ २११-१२, मूलाचार अ. १२ गा २०५ की टीका, स्वामिकार्तिकेयानप्रक्षा गा ४८४ की टीका । ३ ፡ 3 घ. पु ६ पृ. २०६७ व व पु १ पृ ४१० । ६.पृ २०५, पर तत्र चतुर्थचरणे "करण पुरण होइ सम्मत्त" इति पाठ । इयमेव गाथा धनाजी त्रस्थान चूलिकाया (पप्ठे पुस्तके) अप्यागता, व पु ६ पृ. १३६; गो जी. गा. ६५१ । चनारिनि लद्धीश्री भवियाभवियमिच्छाइट्ठीरण साहारणाओ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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