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________________ ( ११ ) पृष्ठ पंक्ति २१४ १६ प्रशुद्ध प्रदेशाग्र देता है । यहा से २१६ २१६ २२० २२१ २२२ rur LAR शुद्ध प्रदेशाग्र देता है। पुरातन गुणश्रेणिशीर्ष से अनन्तर उपरिम स्थिति मे असख्यातगुणा हीन देता है। उसके ऊपर सर्वत्र विशेषहीन-विशेषहीन प्रदेशाग्र देता है। यहा से अपरिपूर्ण निर्जरा ही जिसका एक द्रव्य या गुरण-पर्याय को एक योग तथा एक शब्द के वीचार हो वह पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक शुक्लध्यान है । जिस ध्यान मे अर्थ, व्यंजन व योग की सक्रान्ति न हो, वह एकत्ववितर्क परमात्मध्यानं न सगच्छते । जिण-साहुगुणुक्कित्तण परिपूर्ण निर्जरा जिसका एकद्रव्य या पर्याय को एक तथा एक शब्द के वीचार हो वह एकत्वविर्तक घृतघट २२३ ९ २२५ ४ २२९ ८ २२९ १२ २३१ ५ २३२ १० २३२ ११-१२ परमात्मध्यान सगच्छते जिग-साहुगुणुक्कित्ताण घृतघट वह घी का घट कहलाता है। पु वेद खीणा अर्थ-स्त्यानगृद्धि ..................... ............करके नाश करता है। २५ २३ २४ २३३ २३४ २३४ २३४ २३५ २३५ "घी का घडा लायो", ऐसा कहा जाता है। वैसे ही पु वेद मीणा अर्थ-मध्यम ८ कषायो के क्षय करने के अनन्तर स्त्यानगृद्धिकर्म, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, इन तीन दर्शनावरण की प्रकृतियो को, तथा नरकगति और तिर्यंचगति सम्बन्धी नामकर्म की १३ प्रकृतियो को सक्रम आदि करते समय (अर्थात् सर्वसक्रम आदि मे यानी सक्रम काण्डकघात प्रादि करके) क्षीण करता है गा० ३-४-५ अहियो बोधव्वा अणुभागे अणुभागे अनुभाग की अपेक्षा साम्प्रतिक बन्ध से साम्प्रतिक उदय अनन्तगुणा होता है । इसके अनन्तरकाल मे होने वाले उदय से पश्चादानुपूर्वी गा० १३६, १३८-१३९ अहिय वोधव्वो अणुभागो अणुभागो अनुभागविषयक ३ ८ २३६ २ २३६ १३ २३६ १८-१९ पश्चातानुपूर्वी सेसे और तीन घातिया कर्मों का पृथक्त्व सेस
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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