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________________ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ८९ १४ असख्यातवें भाग गुणी असख्यातवें भाग गुणित अनन्तगुणी ८९ १६ स्पर्घको की संख्या स्पर्घको के वर्गणाओ की सस्या ८९ २२ वर्गणा का सर्ववर्गणानो का ८९ २२-२३ पूर्वस्पर्षको के अनन्तवें भाग प्रमाण अब चू कि ८४ २५ जाता है। जाता है। ८९ २८ क्योकि अनुभाग खण्ड के क्योकि प्रथम अनुभागखण्ड के नोट--पृष्ठ ८६ की टिप्पणी १-सकल अपूर्व स्पर्धक वर्गणाए = एक गुणहानि० की स्पर्धक सस्या एक स्पर्षकगत अनन्त वर्गणा असत्यात जवकि सकलपूर्व स्पर्धक= पूर्व स्पर्धक सवधी नानागुणहानिशलाका एक गुणहानि मे स्पर्धक सख्या या एक स्पर्धक की वगणाएँ x अनत एक गुणहानि मे स्पर्धक संख्या १ [ज० घ० मूल पृ० २०४३ से ] या सकल पूर्व स्पर्धक=एक स्पर्धक गत अनत वर्गणा - अनन्त ४ एकगुणहानि मे स्पर्धक सख्या अव सूत्र (1) से सूत्र (1) मे मान स्पष्टतया अनन्तगुणा होने से यह सिद्ध होता है कि-सकल अपूर्व स्पर्वक वर्गणाओं से पूर्व स्पर्धको की सख्या अनन्तगुणी है । इति सिद्धम् । अनन्तगुणी वर्गणाओं से मायास्पर्धक m अनन्तगुणी उनकी वर्गणाओं से माया के पूर्व स्पर्धक ६२ ९४ ९६ ९६ १० २२ ११ १२ जयघवल पु० ६ पृष्ठ ३८१ उपर्युक्त सूत्र से प्रदेशाग्न सख्यात गुणित है। ६६ १ प्रकार क्रोध कपाय की १०० २३ अतराइणाम १०० २७-२६ अर्थात्.... (जयघवल मूल पृष्ठ २०५१) धवल पु० ६ पृष्ठ ३८१ उपर्युक्त कथन से प्रदेशाग्न सबसे कम हैं । तृतीय सग्रह कृष्टि मे विशेष अधिक हैं क्रोध की तृतीय सग्रह कृष्टि से ऊपर उसकी ही प्रथम सग्रह कृष्टि मे प्रदेशाग्न सख्यात गुरिणत है । से क्रोध कषाय की अतराइ णाम । अर्थात् स्वस्थान गुणकार की "कृष्टि-अन्तर", ऐसी सशा है तथा परस्थान गुणकारो की "सग्रह कृष्टि अन्तर", ऐसी सज्ञा है। (जयपवल मूल पृ० २०५०)
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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