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________________ गाथा ४-५ 1 क्षपणासारचूलिका [ २३३ संछुहदि पुरिलवेदे इत्थीवेदं णबुंसयं चेत्र । सत्तेव णोकसाए णियमा कोह रिह संछुहदि ॥४॥ कोहस्स छुहइ माणे माणं मायाए रिणयमला छुहइ। मायं च छुहाइ लोहे पडिलोमो संकमो णस्थि ॥५॥' अर्थ-अन्तरकरण करनेके पश्चात् द्वितीयसमयसे सर्व मोहनीयकर्मका आतुपूर्वीसक्रमण होता है । लोभकषायका नियमसे असक्रामक होता है ऐसा जानना चाहिए। स्त्रीवेद और नसकवेदके द्रव्यको पुरुषवेदमें संक्रमित करता है। सात (पुरुषवेद व छह नोकषाय) नोकषायके द्रव्यको नियमसे क्रोधमे सक्रमित करता है । क्रोधके द्रव्यको मानमें, मानके द्रव्यको माया में और मायाके द्रव्यको लोभमें संक्रमित करता है । प्रतिलोम संक्रमण नही होता। विशेषार्थ- चारित्रमोहनीयकर्म नव नोकषाय और तीन संज्वलनकपायका स्वमुखक्षय नही परमुखक्षय होता है । अर्थात् इनके द्रव्यका परप्रकृतिरूप सक्रमण होकर इनका क्षय होता है। वह पर प्रकृतिरूप संक्रमण आनुपूर्वीरूपसे होता है प्रतिलोम (पश्चादानुपूर्वी) विधिसे नही होता। सबसे अन्तमें लोभकषायके पश्चात् कोई कषाय नही है जिसमें लोभकषायका द्रव्य संक्रमित हो सके । अतः लोभकषायका सक्रमण नहीं होता, इसका स्वमुखसे क्षय होता है । सर्वप्रथम नसकवेदका क्षय होता है। इसके पश्चात् स्त्रीवेदका क्षय होता है । स्त्रीवेदका बन्ध नही होता, पुरुषवेदका बन्ध होता है । अतः नपुसकवेद व स्त्रीवेदके द्रव्यका सक्रमण पुरुषवेदमे होता है। पुरुषवेद और छह नोकपाय इन सातके पुरातनद्रव्यका क्रोधकषायमे सक्रमण होकर क्षय होता है । क्रोध-मान-माया-लोभ ऐसा क्रम है । संज्वलन क्रोधके द्रव्य का संज्वलनमान कषायमें संक्रमण होकर संज्वलन कोघका क्षय होता है । सज्वलनमानके द्रव्यका सज्वलनमायामे संक्रमण होकर क्षय होता है और संज्वलन मायाके द्रव्यका संज्वलनलोभमे संक्रमण होकर क्षय होता है। अन्तरकरण करनेके पश्चात् प्रतिलोम (पश्चादानुपूर्वी) संक्रमण नही होता अर्थात् लोभका १. जयघवल मूल पृष्ठ २२७३ गा० १३६-१३८-१३६ । क. पा. सुत्त पृष्ट ७६४.६५ गा० १३६. १३८-१३६ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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