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________________ क्षपणासार गाथा २५६ ] [ २२५ ___गृहस्थोंके दान-पूजा, पूर्वउपवास, सम्यक्त्वप्रतिपालन, शीलवतरक्षणादि धर्म कहा है, जो गृहस्थ होते हुए भी किंचित् भी आत्मभावनाको प्राप्त करके अपने आपको ध्यानी कहते हैं वे जिनधर्मके विराधक मिथ्यादृष्टि हैं । और भी कहा है-- "जिण-साहुगुणुक्कित्ताण-पसंसणा-विणय-दाणसंपण्णा । -सील-संजमरदा धम्मज्झाणे मुणेयव्वा' । जिनेन्द्र भगवान और साधुके गुणोंका कीर्तन करना, प्रशंसा करना, विनय करना, दानसम्पन्नता, श्रुत-शील व संयममें त होना इत्यादि कार्य धर्मध्यानमें होते हैं, ऐसा जानना चाहिए । अतः गृहस्थके औपचारिक धर्मध्यान कहा गया है। यद्यपि गाथा २५६ में प्रथम व द्वितीयशुक्लध्यानका ही कथन किया गया है, किन्तु यह कथन तृतीय व चतुर्थशुक्लध्यानकी सूचनार्थ है । अतः तृतीय व चतुर्थ शुक्लध्यानका कथन करते हैं सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति नामक तृतीयशुक्लध्यान है । क्रियाका अर्थ योग है, जो ध्यान पतनशील हो वह प्रतिपाती कहलाता है और उसका प्रतिपक्ष अप्रतिपाती कहलाता है । जिसमें क्रिया अर्थात् योग सूक्ष्म होता है वह सूक्ष्मक्रिया कहा जाता है। सूक्ष्मक्रिय होकर जो अप्रतिपाती होता है वह सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यान कहलाता है। यही केवलज्ञान के द्वारा श्रुतज्ञानका अभाव हो जाता है इसलिए यह ध्यान अवितर्क है । अर्थान्तर व्यंजन-योगकी संक्रान्तिका अभाव होनेसे अवीचार है। शंका-तृतीयशुक्लध्यानमें अर्थ-व्यञ्जन व योगकी संक्रान्तिका अभाव कैसे है ? समाधान--इनके अवलम्बन बिना ही युगपत् त्रिकालगोचर अशेषपदार्थोंका ज्ञान होता है इसलिए इस ध्यानमें इनकी संक्रान्तिके अभावका ज्ञान होता है। "अविदक्कमवीचारं सुहमकिरियबंधणं तदियसुक्कं । सुहमम्हि कायजोगे भणिदं त सव्वभावगदं । १. धवल पु० १३ पृष्ठ ७६ गाथा ५५ । २. धवल पु० १३ पृष्ठ ८३ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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