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________________ ? गाथा २५१ ] [२११ करता है । इसप्रकार प्रदेशों में जो कृष्टिरूप योगशक्ति हुई वह अब प्रगटरूप परिणमन करती है । कृष्टिवेदककाल के प्रथम समय में स्तोक अविभागप्रतिच्छेदयुक्त अधस्तन और बहुत विभागप्रतिच्छेदयुक्त ऊपरितनकृष्टियोको मध्यकी कृष्टिरूप परिणमाकर नष्ट करता है, उनका प्रमाण सर्वकृष्टियोंके असंख्यातवेभागप्रमाण है तथा द्वितीयादि समयोंमें उनसे असख्यातगुणे क्रमसहित ऊपरितन कृष्टियोंको उसीप्रकार नष्ट करता है । सर्व कृष्टियोको असख्यातका भाग देनेपर उसमे से बहुभागप्रमाण मध्यवर्ती कृष्टियां उदयरूप होती हैं । वे कृष्टियां प्रथमसमयसे द्वितीयादि समयोंमे विशेषहीन क्रमसहित जानना चाहिए । इसप्रकार सयोगीके अविभागप्रतिच्छेदरूप शक्तिकी अपेक्षा प्रथमसमयसे द्वितीयादि चरमसमयपर्यन्त असख्यातगुणेहोच क्रमसहित योग पाया जाता है । क्षपरणासार विशेषार्थ - कृष्टिकरणकाल के चरमसमयतक पूर्वस्पर्धक और अपूर्वस्पर्धकों का नाश नही होता; अविनष्टरूपसे दिखाई देते हैं, किन्तु प्रतिसमय पूर्व - अपूर्व स्पर्धको का असंख्यातवां भाग कृष्टिस्वरूप से परिगमन होता है । कृष्टिकरण के चरमसमयसे अनन्तरसमय में सर्व पूर्व - अपूर्वस्पर्धक अपने स्वरूपका परित्याग करके कृष्टिरूपसे परिणमन कर जाते हैं । जघन्यकृष्टिसे उत्कृष्ट कृष्टिपर्यन्त सर्वकृष्टियोंके सदृश होकर उसी समय में परिणमन कर जाते हैं तब अन्तर्मुहूर्त कालतक योगकृष्टि वेदककाल होता है, उस अन्तमुहूर्त कालतक अवस्थितयोग नही होता । प्रथमसमय में कृष्टियोंके असंख्यात बहुभागका वेदन होता है । प्रथमसमय में जिनकृष्टियों का वेदन किया था उनमें से ऊपर और नीचे - की असंख्यात वेभागप्रमाण कृष्टियां अपने स्वरूपको छोड़कर मध्यमकृष्टिरूपसे द्वित्तीयसमय में अनुभव की जाती हैं । प्रथमसमयके योगसे द्वितीयसमय में श्रसंख्यातगुणाहीन योग होता है । इसीप्रकार तृतीयादि समयोमें भी जानना चाहिए । प्रथमसमय में बहुतकृष्टियोंको तथा द्वितीयसमय में उससे विशेषहीन कृष्टियोंको वेदते हैं । इसप्रकार चरमसमयपर्यन्त विशेषहीन क्रमसे कृष्टियोका वेदन करते हैं । अथवा द्वितीय उपदेशानुसार प्रथमसमयमे स्तोक कूष्टियोंको वेदते हैं, क्योंकि प्रथमसमयमे ऊपर-नीचेकी असंख्यातवेभागप्रमाण कृष्टियां नष्ट हो जाती हैं । यहाँ प्रधानरूपसे इसीकी विवक्षा है । द्वितीयसमय में प्रथमसमयकी अपेक्षा असख्यातगुणी कृष्टियों का अनुभव करते है, प्रथमसमय में जो कृष्टियां नष्ट हुई हैं उनसे असख्यातगुणी कृष्टिया जो कि ऊपर-नीचेकी कृष्टियोंके असंख्यातवेभागप्रमाण हैं वे द्वितीय समय में वष्ट होती हैं । इसप्रकार अन्तर्मुहूर्त कालतक असंख्यातगुणितश्रेणिरूपसे कृष्टिगत योगका
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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