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________________ गाथा २१९-२२० ] क्षपणासार [ १८५ अघातिया कर्मों में विशेषता नहीं है तथापि घातकी अपेक्षा विशेषता होनेसे द्वितीय शुक्लध्यानरूप अग्निके द्वारा क्षीणकषायके चरमसमय में घातिया कर्मोका निर्मूल क्षय हो जाता है | क्षीणकषायगुणस्थानके चरमसमयमे घातियाकर्मोके नाशका यह कथन उपपादानुच्छेद नयकी अपेक्षासे है अन्यथा उस चरमसमय में अन्तिमनिषेकका सत्त्व और उदय पाया जाता है । बन्धकी अपेक्षा इन घातिया कर्मोंका और जीवप्रदेशोका एकत्वरूप परिणमन हो रहा था । बन्धके कारणोके प्रतिपक्षी मोक्षके कारणभूत परिणामरूपयन्त्र के द्वारा पेलनेपर जीवप्रदेशोंसे कर्मप्रदेशोका निर्मूल हो जाना क्षय है । जीवसे पृथक् हो जानेपर भी अकर्मभावसे परिणत कर्मपुदुगलोंका पुद्गलस्वरूपसे क्षय नहीं होता, जैसे मलसे व्यावृत्ति होनेपर कपड़ा निर्गल हो जाता है, किन्तु मलकी सत्ताका अत्यन्त विनाश नहीं होता वैसे ही प्रात्मा कर्मोंसे निर्वृत्त होनेपर परिशुद्ध हो जाता है' । पश्चात् अनन्तरसमय में अनन्त केवलज्ञान- केवलदर्शन और अनन्तवीर्यसे युक्त जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी होकर सयोगिजिन हो जाते हैं । खीये घादिचउक्के गंतचउक्कस्स होदि उप्पत्ती । सादी अपज्जवसिदा उक्कस्सागांत परिसंखा ॥२१६॥६१०॥ अर्थ - घातिया कर्म चतुष्टयका नाश होनेपर अनन्त चतुष्टयकी उत्पत्ति होती है, यह अनन्तचतुष्टय सादि व अपर्यवसित ( अविनाशी ) है तथा उत्कृष्ट अनन्त संख्यावाला है । विशेषार्थ - सादि अर्थात् उत्पत्तिकाल में आदिसहित है तथापि अपर्यवसिता यानि अवसान - अन्तसे रहित होनेसे अनन्त है अथवा अविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा इनकी उत्कृष्टमनन्तानन्तप्रमाण संख्या है अतः अनन्त कहते हैं । किस कर्मके नाशसे कौनसा गुण होता है, सो आगे कहते हैंआवरणदुगाण खये केवलगाणं च दंसणं होदि । विरियंतरायियस् य खए विरियं हवे तं ॥ २२०॥६११॥ अर्थ- दोनों आवरणोंके क्षयसे केवलज्ञान व केवलदर्शन तथा वीर्यान्तरायकर्मके क्षयसे अनन्तवोर्य होता है । १. जयधवल मूल पृष्ठ २२६६ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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