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________________ ( १७ ) के लिए पू. महाराज श्री की प्रेरणा मिली जिसे मैंने शिरोधार्य किया। इन दिनो मै उसी (गोम्मटसार जीवकाण्ड को) टीका की लिख रहा हूं। सन् १९३५ तदनुसार वि. सं. १६६१ मे विद्वज्जगत् के सुप्रसिद्ध विद्वान् स्व. मारिएकचन्द्रजी कौन्देय 'न्यायाचार्य' दस लक्षण पर्व पर सहारनपुर पधारे थे। तत्त्वार्थसूत्र की व्याख्या करते हुए उन्होने उपशम सम्यग्दर्शन का स्वरूप बताया किन्तु ज्ञान के अल्पक्षयोपशमवश उनके द्वारा आगमानुमोदित वह व्याख्या मैं समझ नहीं पाया। हा! इतना अवश्य समझ सका कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से ही मेरा आत्म हित हो सकता है। शास्त्र प्रवचन के अनन्तर मैंने पडितजी से पूछा कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का उपाय और उसका स्वरूप जैन दर्शन के किस ग्रन्थ मे विस्तार पूर्वक मिल सकता है ? मेरे इस प्रश्न का सहजिक उत्तर देते हुए पडितजी बोले प्राचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती विरचित 'लब्धिसार-क्षपरणासार' ग्रन्थ मे सम्यग्दर्शन की विस्तृत प्ररूपणा की गई है। उस समय मुझे ऐसा लगा जैसे 'अधे को दो पाखे ही मिल गई हो' उक्ति के अनुसार मुझे निधि प्राप्ति ही हुई हो। सहारनपुर मे उन दिनो मुद्रित न थ उपलब्ध नही थे। अतः हस्तलिखित लब्धिसार-क्षपणासार से स्वाध्याय प्रारम्भ किया। कई दिनो तक विषय स्पष्ट नही हुमा फिर भी मन में निराशा नही हुई और बार-बार के प्रयत्न से सफलता मिली। कुछ दिनो के पश्चात् तो वकालात का कार्य छोड़कर जैन सिद्धान्त के विभिन्न ग्रंथो का (धवल-जयधवल-महाधवल, गोम्मटसार-समयसारप्रवचनसार-त्रिलोकसारादि) अपने लघुभ्राता नेमिचन्द्र वकील के साथ स्वाध्याय किया। मुझे अत्यन्त हर्ष है कि जिस ग्रन्थ के अध्ययन से मुझे सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी मिली उसी ग्रन्थ की टीका लिखने का जीवन के अन्तिम चरणो मे सुअवसर मिला। यह अत्यन्त सुखद संयोग है। पू. आ. क. श्री श्रु तसागरजी महाराज का अत्यन्त कृतज्ञ हू कि जिन्होने टीका की वाचना को उपयोग पूर्वक श्रवणकर यथायोग्य सुझाव दिये। उन्ही की प्ररणा एवं प्राशीवर्वाद से मैं इस कार्य को करने में सक्षम हो सका है। आगे भी इसी प्रकार जिनवाणी सेवा मे मेरा जीवन व्यतीत हो इसी मगल भावना से विराम लेता हूं। आशा है ब्र. लाडमलजी के सद्प्रयत्न से इस टीका का शीघ्र प्रकाशन होगा। ) दीपावली वि. स २०३६ निवाई रतनचन्द जैन मुख्तार सहारनपुर (उप्र.) विशेष : ग्रन्थ की यह प्रस्तावना स्व. मुख्तार साहव ग्रन्थ की नवीन टीका की वाचता के अवसर पर जव निवाई चातुर्मास मे पाये थे तभी वाचना के अनन्तर ही लिख गये थे। एक वर्ष के पश्चात उनक स्वर्गवास ही हो गया । अत्यन्त खेद रहा कि वे इस ग्रन्थ के प्रकाशन को नहीं देख सके। उनके द्वारा लिखित उसी प्रस्तावना को अब प्रन्थ प्रकाशन के साथ यहां प्रकाशित किया जा रहा है। (प्रकाशकीय टिप्पगो)
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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