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________________ क्षपणासार [गाथा १८२-१८३ १५६] वाले प्रदेशाग्रको जो विधि पहले कही गई है वही विधि शेष समयोंमे जानना चाहिए और यह क्रम बादरसाम्परायि ककृष्टिके चरमसमयतक ले जाना चाहिए' । पडमादिसु दिस्तकम सुहुमेसु अणंतभागहीणकमं । बादरकिट्टिपदेसो असंखगुणिदं तदो हीणं ॥१८२॥५७३॥ अर्थ-सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिकारकके प्रथमसमयमे दृश्यमानक्रम सूक्ष्मकृष्टियोंमें अनन्तवेभागहीनरूपसे घटता हुआ द्रव्य है, उसके अनन्तर बादरकृष्टि में असख्यातगुणा तथा उसके पश्चात् अनन्तवेंभागहीन द्रव्य है । विशेषार्थ-बादरकृष्टियोके द्रव्यका असख्यातवांभाग अपकर्षण करके सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिकारक कृष्टियोमें दृश्यमान प्रदेशाग्र प्रथमसमय में इसप्रकार है-जघन्यसूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिमे दृश्यमान प्रदेशाग्न बहुत है, इससे आगे चरमसूक्ष्मसाम्परायिककृष्टितक प्रत्येककृष्टिमे दृश्यमानद्रव्य पूर्वकृष्टिसे अनन्तवेंभागहीन है अर्थात् एक-एक चय घटता है । चरमसूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिके अनन्तर ऊपर तृतोयबादरसंग्रहकृष्टिकी जघन्यबादरसाम्परायिककृष्टि में प्रदेशाग्र असख्यातगुणे हैं, क्योकि बादरकृष्टियोके असंख्यातवेभाग प्रदेशाग्नोका अपकर्षण होकर सूक्ष्मकृष्टियोकी रचना हुई है अतः सूक्ष्मकृष्टिप्रदेशाग्रकी अपेक्षा बादरकृष्टि मे दृश्यमानप्रदेशाग्न असख्यातगुणे हैं। उसके पश्चात् प्रत्येक बादरकृष्टिमे अनन्तवैभाग-अनन्तर्वभागहीन होता गया है अर्थात् अन्तरोपनिधामें एक-एक चय घटता गया है। यह श्रेणिप्ररुपणा सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिकारकके प्रथमसमयसे लेकर चरमसमयवर्ती बादरसाम्परायिककृष्टिपर्यन्त करना चाहिए। प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्म साम्परायिककृष्टियोमे भी दृश्यमान प्रदेशाग्रकी यही श्रेणिप्ररुपणा है । पूर्वद्रव्य और निक्षिप्तद्रव्यके मिलने पर दृश्यमानप्रदेशाग्न होता है । *लोहस्सतदियादो सुरुमगदं विदियदो दु तदियगदं । विदियादो सुहुमगदं दळवं संखेज्जगुणिदकमं ॥१८३।।५७४।। १. जयधवल मूल पृष्ठ २१६६ से २२०१ तक । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६६ सूत्र १२७० से १२७५ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०० । ३. जयघवल मूल पृष्ठ २२०१-२२०२ । ४. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६७ सूत्र १२७७ से १२७६ । घ० पु०६ पष्ठ ४०० ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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