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________________ १४६ ] क्षपणासार [गाथा १६७ विशेषार्थ--मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदक चरमसमयसे अनन्तरसमयमें द्वितीयस्थितिमे से मानकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिके प्रदेशानको अपकर्षित करके उदयादि गुणश्रेणिरूपसे प्रथमस्थितिमें क्षेपण करता है और द्वितीयसंग्रहकृष्टिको उसी विधिसे वेदन करता हुआ जबतक प्रथमस्थिति में एकसमयअधिक आवलिकाल शेष रहता है तबतक पूर्वोक्त विधिसे सब कार्य करता हुआ चला जाता है। प्रथमस्थिति शेष रह जानेपर मानकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका चरमसमयवर्ती वेदक होता है, उससमय तीन संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध यथाक्रम घटकर अन्तर्मुहूर्तकम ४० दिन अर्थात् १ मास १० दिन और स्थितिसत्त्व यथाक्रम घटकर अन्तर्मुहर्तकम ३२ माह अर्थात् २ वर्ष ८ साह रह जाता है । इसप्रकार स्थितिबन्ध तो १० दिन और स्थितिसत्त्व आठमाह घट जाता है । यह सब त्रैराशिक विधिसे सिद्ध कर लेना चाहिए'। तदियस्स माणचरिमे तीसं चउवीस दिवसमासाणि । तिरहं संजलणाणं ठिदिबंधो तह य सत्तो य ॥१६७॥५५८।। अर्थ-उसके पश्चात् मानकी तृतीयसंग्रहकृष्टिका वेदक होता है, उसके चरमसमयमै तीन संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम ३० दिन और स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्तकम २४ माहप्रमाण होता है। ' विशेषार्थ-मानकषायकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिके वेदककालके चरमसमयके अनन्तरसमयमें द्वितीयस्थितिसे माचकी तृतीयसंग्रहकृष्टि के प्रदेशाग्रका अपकर्षणकरके पूर्वोक्तप्रकार प्रथमस्थिति करता है और उसी विधिसे मानकी तृतीयसंग्रहकृष्टिको वेदन करनेवालेकी जो प्रथमस्थिति है उसमें एकसमयाधिक आवलिप्रमाणकाल शेष रहनेतक पूर्वोक्त सर्वकार्य करता हुआ चला जाता है और जब एकसमयाधिक आवलिकाल शेष रहनेपर मानका चरमसमयवर्ती वेदक होता है तब तीनों सज्वलनकषायों (मान, माया व लोभ) का स्थितिबन्ध यथाक्रम घटकर ३० दिन अर्थात् एकमास और स्थितिसत्त्व भी यथाक्रम घटकर २४ मास अर्थात् परिपूर्ण २ वर्ष रह जाता है। यहां भी घटनेका काल त्रैराशिकविधिसे सिद्ध कर लेना चाहिए । १. जयधवल मूल पृष्ठ २१६१-६२ । २. फ० पा० सुत्त पृष्ठ ८६० सूत्र १२०४ से १२०८ । धवल पु० ६ पृ० ३६४ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २१६२ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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