SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ६१ होती है। वह अपने विरुद्ध होते हैं तथा अवगणना होती है। जिससे अपनी लघुता उत्पन्न होती हो उसका कारण स्वयं होते हैं। इस कारण अपनेमें रहे हुए गुण तथा सम्यक् आचार- आदिकी छाप हम और लोगों पर नहीं डाल सकते । अतः लोक व्यवहारका आदर करना चाहिए । कहा है कि " लोकः खल्वाधारः, सर्वेषां धर्मचारिणां यस्मात् । "तस्माल्लोकविरुद्धं, धर्मविरुद्धं च संत्याज्यम्' ॥३७॥ ___-धर्म मार्ग पर चलनेवाले सबका आधार लोक है अतः, जो लोकविरुद्ध व धर्मविरुद्ध हो उसका त्याग करना चाहिए। तथा-हीनेषु हीनक्रम इति ॥ ४७॥ मूलार्थ- हीनके साथ तदनुकूल व्यवहार करना चाहिये ॥ १७ ॥-..... . .. १. विवेचन-हीनेषु-अपने कर्मके दोषसे, जाति, विद्या आदि. गुणों के कारण जो लोकमें नीचे गिना जाता है। हीनक्रम-तुच्छ लोकव्यवहार करना-तदनुकूल व्यवहार । - - - - खुदके कर्म दोपसे जो व्यक्ति जाति या कर्म विद्याको प्राप्त हो या जिसमें कम गुण हों उसके साथ उसके अनुरूप - व्यवहार करना चाहिये । पर उसका तिरस्कार न करे तथा अपने- उंचेपनका मद न करे । किसीमे दोष है तो कर्मके कारण है ऐसा सोचकर उस पर दया करना । अवगुणी भी गुणीके संगसे आत्मनिरीक्षण द्वारा धीरे धीरे अपने दोष दूर कर सकेंगा। उसके साथ उसके योग्य वर्तन
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy