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________________ ५४ : धर्मविन्दु "तिथि-पर्वोत्सवाः सवे, त्यक्ता येन महात्मना। अतिथि तं विजानीयाच्छेपमभ्यागतं विदुः" ॥३०॥ -जिन महात्माओने तिथि, पर्व तथा उत्सव-सबका त्याग कर दिया है उन्हें अतिथि (साधु) कहना चाहिए, अन्य सबको अभ्यागत जानो। ये गुरु ही तीर्थकर व केवली आदिके न होने पर भी ज्ञानकी रक्षा करते हैं। ऐसे गुरुकी भक्ति करना चाहिए । गुरुभक्तिसे ही ज्ञान मिलता है। दीना:-'दीड क्षये'-धातुसे-जिनके पैसे खत्म हो गये या धर्म, अर्थ व कामकी आराधना करनेके सब साधन व शक्तिका क्षय हो गया है वे दीन हैं। __ऐसे देव, अतिथि व दीनकी निरंतर भक्ति, सेवा व उपचार आदि करना चाहिये अर्थात् प्रभुकी निरंतर भक्ति व पूजा, गुरुकी भक्ति तथा अन्न, पान, विद्या आदिसे यथोचित सेवा-सुश्रूषा व दीनोंको दान देना ही उनकी सेवा करना है। द्रव्यकी तीन गतिमेंसे दान करना ही अति उत्तम है अन्यथा वह विना खर्च किये नाश होता है। उसमें भी तदौचित्यायाधनमुत्तमनिदर्शनेनेति ॥४०॥ मूलार्थ-उत्तम पुरुषोंके उदाहरणसे उनके (देवादि) के औचित्यका उल्लंघन न करे॥४०॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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