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________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ४३ -यद्यपि योगीजनोंको सारी पृथ्वीके-संसारको छिद्रं (दोष) दिखाई देते हैं तब भी व मनसे लौकिक आचारको नहीं छोडते । अतः देशाचार यद्यपि अधिक उपयोगी न भी हो या न दीखे तब भी जब तक वह हानिमद न हो उसका पालन करना ही ठीक है । अब आगेके गुण कहते हैं तथा-गर्हितेषु गाढमप्रवृत्तिरिति ॥ २७ ॥ मूलार्थ-निन्दित कार्यमें लेश भी प्रवृत्ति न करना चाहिए। विवेचन-गहितेषु-ऐसा कार्य जिससे इहलोक तथा परलोकमें अनादर तथा निन्दा हो, जैसे मद्य-मांस सेवन व परदारगमनादि निन्दित कार्य, गाढमप्रवृत्तिः-लेश मात्र भी प्रवृत्ति न करना-मन, वचन व काया-सबसे बच कर रहना। गृहस्थको मद्य-मांस सेवन व परदारगमन जैसे घृणित कार्योसे जिससे इहलोक व परलोक दोनों बिगडते है, दूर रहना चाहिए। मन, वचन, काया- तीनोंसे इस ओर लेश मात्र भी प्रवृत्ति न करना चाहिए । आचारशुद्धि होनेसे सामान्य कुलोत्पन्न पुरुष भी महत्ताको प्राप्त होते हैं। कहा है कि "न कुलं वृत्तहीनस्य, प्रमाणमिति मे मतिः। अन्त्येष्वपि हि जातानां, वृत्तमेव विशिष्यते" ॥२३॥ -सदाचार रहित पुरुषका कुल प्रमाणरूप नहीं है-ऐसा मैं मानता हूं। क्षुद्र कुलोत्पन्न होने पर भी सदाचारी होने पर वह उत्तम होता है या महत्ता पाता है।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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