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________________ ३६ : धर्मविन्दु संगति करना चाहिए | जैसे पानी गरम लोहे पर, कमलपत्र पर या स्वातिनक्षत्रमें सीप पर पडता है तब क्रमशः वह नष्ट, मुक्तासम, व मोती होता है वैसे ही मनुष्य भी उत्तम, मध्यम या नीच संगतिसे तदनुरूप गुणों की प्राप्ति करता है । नीच पुरुष सर्पवाले घरकी तरह संगतिके लायक नहीं होता । उत्तम पुरुषकी संगति करनेसे ही यह पुरुष गुणवान है ऐसी प्रसिद्धि होती हैं । कहा भी है कि "गुणवानिति प्रसिद्धिः संनिहितैरेव भवति गुणवद्भिः । ख्यातो मधुर्जगत्यपि, सुमनोभिः सुरभिभिः सुरभिः” ॥१७॥ गुणवान पुरुषोके सानिध्यसे ही 'गुणवान् है' ऐसी पुरुषकी प्रसिद्धि होती है । जैसे वसंत ऋतुका नाम 'सुरभि' नामक सुगंधित पुष्पसे ही 'सुरभि' पढा है । तथा-स्थाने गृहकरणमिति ॥ १९ ॥ 1 1 मूलार्थ - योग्य स्थानमें निवास स्थान बनाना चाहिए। विवेचन- अयोग्य व बुरे स्थानको छोड़कर अन्य स्थानों में अपना निवास स्थान बनाना चाहिए । अयोग्य स्थानके लक्षण कहते है -- अतिप्रकटा तिगुप्तस्थानमनुचितप्रातिवेश्यं चेति ॥२०॥ मूलार्थ- जो स्थान बहुत खुला हुआ या बहुत गुप्त हो तथा जिसके पडौसी खराब या अयोग्य हों वह स्थान रहनेके लिये अयोग्य है । विवेचन - अतिप्रकटम् - जो एकदम आम रास्ते पर या
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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