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________________ ३४ : धर्मविन्दु इस हर्षमें जिससे अन्योंको कष्ट होता है हिंसा है । सप्त व्यसनमें आनंद प्राप्त करना पापकर्मका बन्धन करना है यह सभी व्यसन दुर्गुण हैं इनमें पडनेसे अशुभ ही होता है । ऐसे छ अंतरंग शत्रुओंका नाश करना चाहिए। इनके रहनेसे पाप प्रवृत्ति होती है और न रहनेसे पुण्य कर्म करनेका प्रसंग उपस्थित होता है । इन षट् कर्मोंका त्याग करके गृहस्थ अवस्थाके 'योग्य धर्म और अर्थके अविरुद्ध (जिनसे विरोध या हानि न हो सके वे ) सर्व इन्द्रियोके त्रिपोंका उनमें आसक्ति रखे बिना सेवन करना चाहिए। धीरे धीरे उसमें कमी करके इन्द्रिय निग्रह करना चाहिए, इसे इन्द्रियजय कहेते हैं । सर्व इन्द्रियोके विकारोंका संपूर्ण निरोध करना यतिधर्म है जिसके बारेमें आगे कहा जायगा । यहां गृहस्थका सामान्य धर्म कहा है अतः इन्द्रियोंके विषयोंको अंगीकार करके आसक्ति विना व क्रमशः इन्द्रिय निरोवको गृहस्थके सामान्य धर्मका अंग कहा है। तथा-उपप्लुतस्थानत्याग इति ॥१६॥ मूलार्थ-उपद्रववाले स्थानका त्याग करना चाहिए । विवेचन-अपने राज्यका या अन्य राज्यके सैन्यका विक्षोभ होने पर अकाल, महामारी, लोकविरोध तथा अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि उपद्रव उत्पन्न होने, पर अपने निवास स्थान प्राम, नगर आदिका त्याग कर देना चाहिए । न करनेसे चित्तकी अशाति होती है जिससे , धर्मध्यान व संसार व्यवहारमें बाधा पहुचती है । इससे पूर्व प्राप्त
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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