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________________ २४ : धर्मविन्दु दोनोके रहनेके ढग भिन्न होगे तो स्वतः दाम्पत्यजीवन बिगड जायगा । मानसिक संपत्ति व गुण दोपादि एकसे होनेसे ही दोनोकी जोडी अच्छी बैठ सकती है। स्वभाव आदिकी भिन्नतासे अन्य दोष भी उत्पन्न हो सकते हैं। अगोवजा-एक ही पुरुषसे चला आनेवाला वश गोत्र कहलाता है, उसमें उत्पन्न लागोसे भिन्न अगोत्रज हैं। एक ही गोत्रमें विवाह होनेसे गोत्रका आपसी बडे छोटेका व्यवहार लुप्त हो जाता है। कन्याका पिता उम्र तथा वैभवमें बडा होने पर भी जामाताके पितासे छोटा ही समझा जायगा। ऐसे विवाह संबन्धसे कोई लाभ भी नहीं है। साथ ही पहले चले आनेवाले विनय-व्यवहारमें अंतर आ जानेसे अनर्थ हो सकता है। वर्तमान स्वास्थ्य विज्ञानने भी यह सिद्ध किया है कि एक ही गोत्रमें विवाह होना स्वास्थ्य तथा बच्चोंकी सुंदरताके लिये भी हानिकर है। . उपरोक्त तीन बातोंके होने पर विवाह संबन्ध जोडे पर एक बात छोडनेकी भी है, वह है बहुविरुद्धेभ्यः अन्यत्र-जिसके बहुत शत्रु हो उसके साथ संबन्ध करनेसे अपराध रहित होने पर भी उसके भी शत्रु हो जाते हैं। दूसरे उसे अकारण टीका सहन करनी पडती है व अपनी प्रतिष्ठाकी कमी हो जाती है। उसका भी उसी प्रकार विरोध हो सकता है । जिसके बहुत शत्रु होंगे उसे कभी शांति न होगी, अशान्त चित्तवालेके साथ विवाह करना अयोग्य है। उससे
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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