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________________ हरएक सूत्र पर एक एक ग्रन्थ सा विस्तार हो सकता है ऐसा अनूठा ग्रन्थ मानता हूं | आ० श्रीमुनिचन्द्रसूरिजीने इन सूत्रोका विशद रूपसे स्पष्टीकरण किया है। धर्मके विषयमें जो सूचक अंश सूत्रकारने दर्शाये हैं उनको वृत्तिकारने अपनी प्रतिभासे पल्लवित करके उस विषयको और कृति - कारके मन्तव्यको समझानेमें बडी कुशलतासे निरूपण किया है । इतना ही नहीं प्रामाणिक ग्रन्थोके अवतरण देकर अपने प्रतिपादनको प्रतिष्ठ की महोर लगा दी है और अपने बहुश्रुतत्वका इस तरहसे भी परिचय दिया है । आठ अध्यायोंमें-१ गृहस्थविधि, २ देशनाविधि, ३ गृहस्थधर्म, विधि, ४ यतिविधि, ५ यतिधर्मविधि, ६ यतिधर्म. ७, धर्मफलविधि, और ८ तीर्थकर पदप्राप्तिविधि व सिद्धस्वरूप - इत्यादि विषयोंका बडी कुशलतासे ऊहापोह करके उन विषयोका मार्मिक स्वरूपदर्शन कराया गया है । अब हम इस ग्रन्थके कर्ताके विषय में कुछ परिचय दे रहे हैं जिससे वाचक वर्गको श्रीहरिभद्रसूरिजी के महत्वका ख्याल आ सके । आचार्य श्रीहरिभद्रसूरि : उपक्रम जैन शासन में आचार्य हरिभद्रसूरि बढे प्रभावक और महान ग्रन्थकार हुए हैं । उनका विपुल साहित्यराशि आज भी संस्कृत और प्राकृत भाषासाहित्यके गगनमें उज्ज्वल सुधाकर सा प्रकाशमान है । उनकी प्रकांड विद्वत्ता, अपूर्व ज्ञानसंग्राहिता, समभाववृत्ति, निष्पक्ष
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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