SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ : धर्मविन्दु यहां 'अनन्य अनुष्ठान' करनेका शाखाकार कहते है, पर यदि सर्वथा आचरण न करे तो निर्वाह न होनेसे गृहस्थकी सब शुभ क्रियाओके अंत होनेका समय आता है, जिससे अधर्म ही होता है। कहा है P "वित्तियोच्छेयस्मि य, गिहिणो सीयंति सव्वकिरियाओ । निरवेक्खस्स उ जुत्तो संपुण्णो संजमो चेघ" ॥ २ ॥ - ( पचागक श्लोक १५१) -जिस गृहस्थकी आजीविका समाप्त हो जाती है उसकी सर्व धर्मक्रियाएँ खत्म हो जाती हैं। पर जिसे आजीविकाकी अपेक्षा नही है उसे सर्वचिरतियुक्त संयम ही लेना चाहिए । न्यायसे धन उपार्जन करनेका कारण बताते हैंन्यायोपात्तं हि वित्तमुभयलोकहितायेति ||४|| मूलार्थ - न्याय से उपार्जित धन ही इस लोक और परलोकके हित के लिये होता है ||४|| - विवेचन - न्यायोपात - शुद्ध व्यवहारसे कमाया हुआ, वित्तंद्रव्य-धन जो निर्वाहके कार्य में आवे । उभय लोकहिताय - इहलोक और परलोक दोनो के लिये कल्याणकारी । HOM । न्यायवृत्तिसे प्राप्त किया हुआ धन दोनों लोकों के लिये कल्याणकारी होता है ॥ 6 वह न्यायोपार्जित द्रव्य दोनो लोको के लिये कैसे हितकारी होता है - वह कहते हैं
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy