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________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४६३ विवेचन-एतत-कहा हुआ अर्थान्तर प्राप्तिका स्वरूप, तस्यसिद्ध भगवानको, आकालं आनेवाले सदा काल तक, सारे समय तक, तथावस्थिते:-उसी प्रकार रहना । सिद्ध जीवको कोई अन्य पदार्थ प्राप्त करनेकी उत्सुकता नहीं है। वे सदा काल तक उसी अपने स्वरूपमें रहनेवाले हैं। सर्व कर्मसे मुक्त होकर ऊर्ध्व गति करके सिद्ध होनेके प्रथम समयसे लेकर जहां तक काल रहेगा अर्थात् अनत समय तक प्रथम समयमें रही हुई उनकी अपनी स्थितिमे स्वस्वरूपमें रमण करनेकी स्थितिमें रहेंगे। कर्मक्षयाविशेषादिति ॥६०॥ (५४१) मूलार्थ-कर्मक्षयमें विशेषता न होनेसे ॥६०॥ - विवेचन-जिस क्षणमे सिद्धत्वकी प्राप्ति हुई उसी प्रथम क्षणमें सकल कर्मक्षय हो चुके थे या हो जाते हैं अतः उनका सब क्षणोमें-सब समयमें एकरूपता है, मेद नहीं। अतः सिद्ध भगवान सदा काल उसी स्थितिमें रहते है। कर्मक्षयसे जो अपना स्वरूप प्रगट हुआ है सर्व समयमे उसी स्वरूपमें रहते हैं। कोई विशेष कर्मक्षय करनेके लिये बचे ही नहीं है कि उनका विशेष स्वरूप प्रगट हो। इति निरुपमसुग्वसिद्धिरिति॥६१।। (५४२) मूलार्थ-इस प्रकार सिद्ध भगवानको निरुपम सुख है ऐसा सिद्ध हुआ ॥६॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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