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________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४६१ स्वस्वभावनियतो ह्यसौ विनिवृत्तेच्छाप्रपञ्च इति ||१६|| (५३७) मूलार्थ - जिसने इच्छा समूहका नाश कर दिया है ऐसा सिद्ध जीव अपने स्वभावमें ही रहता है ||५६ || विवेचन - स्वस्वभाव नियत - अपने स्वरूपमात्रमें ही रहनेवाला, सौ - जिस सिद्ध भगवानने, विनिवृत्तेच्छाप्रपञ्च - सर्व पदार्थों के प्रति इच्छाका नाश कर दिया है । तीनों भुवनके सब पदार्थों की ओर से अपनी अभिलापाको खत्म कर दिया है । क्योंकि वे उसे शाश्वत सुख देनेवाली नहीं है ऐसा अनुभवसिद्ध है अतः वह अपने आत्मामें ही रहता है वहीं उसे शाश्वत शांति मिलती है । बाह्य पदार्थों की अभिलाषा नहीं है। सिद्ध क्षेत्र गत आकाशके साथ भी सिद्ध जीवका संबंध नहीं है ऐसा बताते हैं अतोकामत्वात् तत्स्वभावत्वान्न लोकान्तक्षेत्राप्तिराप्तिः || ५७|| (५३८) मूलार्थ - निष्काम होनेसे, निष्काम स्वभाव होनेसे लोकांतस्थित सिद्धक्षेत्र में जाने पर भी उसके साथ संबंध नहीं है ॥५७॥ विवेचन - अत - सब इच्छाओंके नाश हो जानेसे, अकामत्वंजो निष्कामपना या निरभिलापता, तत्स्वभावत्वं उससे आत्मासे भिन्न वस्तुओंकी अपेक्षा न होनेसे, लोकान्तक्षेत्राप्ति- लोकांत क्षेत्रकी प्राप्ति होने पर भी, आप्ति - आत्मासे भिन्न आकाशसे संबंध |
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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