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________________ धर्मफल देशना विधि : ४२५ शुभ परिणाम न हो तो जीवको मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती अत' मोक्षका प्रधान कारण शुभ परिणाम ही हैं। अव उपसंहार करते हुए शसकार कहते हैं इत्यप्रमादसुखवृद्धया तत्काष्ठासिद्धी निर्वाणाचासिरितीति ॥३८॥ (४८१) मृलार्थ-इस प्रकार अप्रमादसुखकी वृद्धिसे चारित्र धर्मकी मडी सिद्धि होने पर मोक्ष प्राप्ति होती है ॥३८॥ विवेचन-इति-इस प्रकार उक्त रीतिसे, अप्रमादसुखवृद्ध्याअप्रमत्तता लक्षणकी वृद्धि होनेसे, प्रमादके मिटनेसे, अप्रमादकी वृद्धि होनेसे-तवकाष्टासिद्धौ-चारित्र धर्मकी उत्कृष्ट सिद्धि होने पर शैलेशी अवस्थाकी प्राप्ति होनेसे, निर्वाणस्य-सब क्लेशके लेश मात्र भी न रहनेसे जीवका असली वरूपका मिलना ही निर्वाण है, अवाप्ति-मिलना। ____ मोक्ष प्राप्तिके लिये साधु अप्रमादी होवे । शुभ विचार निरंतर बढे पर अशुभ विचार उसमें न घुस सके और चारित्रपालनकी उच्चतर हद तक बढे तभी उसे निर्वाण मिल सकता है। वही आत्मत्त्वरूपको पा करके मोक्ष पाता है। यत् किञ्चन शुभं लोके, स्थानं तत् सर्वमेव हि। अनुबन्धगुणोपेतं, धर्मादाप्नोति मानवः ॥४०॥ मूलार्थ-इस लोकमें जो कोई शुभ स्थान कहलाते हैं वे सब उत्तरोत्तर शुभ गुण सहित मनुष्य धर्मद्वारा प्राप्त करता है। विवेचन-यत् किञ्चन-सब कुछ, शुभं-सुंदर, लोके तीनों
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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