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________________ RA ४१८ : धर्मबिन्दु जीवके शुभ अध्यवसायकी बढतीसे जीवके वीर्यका उल्लास होता है। जहां आत्मामें शुभ विचारोकी वृद्धि हुई, वैसे ही विचारोंको कार्यरूपमें लानेकी वृत्ति होती है। तत् तथास्वभावत्वादिति ॥२८॥ (१७१) मूलार्थ-जीवको उस प्रकारका स्वभाव होनेसे ॥२८॥ विवेचन-तस्य जीवका, तथास्वभावत्वात् . परिणतिके वृद्धि स्वरूप । जीवका शुभ अध्यवसाय होना जीवका स्वभाव है । आत्मा अनंत ज्ञानवाला है और उससे उच्च ज्ञान स्वरूप होनेसे आत्माका शुभ अध्यवसाय होना स्वभाविक है। जब भव्यता परिपक्क होती है तव जीवकी शुभ परिणति अतिशय वृद्धि प्राप्त करती है। . किञ्च-प्रभूतोदाराण्यपि तस्य भोगसाधनानि, अयत्नोपनतत्वात् प्रासङ्गिकत्वादभिषगा. भावात् कुत्सिताप्रवृत्तेः शुभानुबन्धित्वादुदारासुखसाधनान्येव बन्धहेतु स्वाभावेनेति ॥२९।। (४७२) मूलार्थ-और अतिशय उदार ऐसे भोगके साधन भी बन्धके कारणका अभाव होनेसे उदारता सुखका साधन होता है क्योंकि वे शुभ कर्मके अनुवन्धसे उत्पन्न होते हैं । उससे कुत्सित कर्ममें प्रवृत्ति नहीं होती और उससे उसमें असक्तिका
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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