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________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३९५ यतेस्तदप्रवृत्तिनिमित्तस्य गरीय स्त्वादिति ॥ ७३ ॥ (४४०). मूलार्थ- भाव यतिकी अनुचित कार्यमें प्रवृत्ति न होनेका निमित्त मुख्य है ॥७३॥ विवेचन- यंतेः- भावसाधु, तदप्रवृत्ति-अनुचित कार्यमें प्रवृत्ति न होना, निमित्तस्य- सम्यग्दर्शन आदि परिणामका, गरीयस्त्वात्- महत्वा । भाव साधु अनाचार सेवन आदि अनुचित कार्य नहीं करता । उसका कारण सम्यग्दर्शनका परिणाम है । वह सम्यग्दर्शन आदि अनुचित कार्यमें प्रवृत्ति करानेवाले मिथ्यात्व आदि कषायोंसे अधिक महत्त्वका है। मिथ्यात्व आदि उसे प्रकारके कर्भके उदयसे उत्पन्न वस्तु है । सम्यगदर्शन आदि आत्माके स्वाभाविक गुण है अतः वे ज्यदा महत्त्वके हैं। स्वाभाविक गुण अस्वाभाविकसे ज्यादा महत्ववाले हैं ही। वस्तुतः स्वाभाविकत्वादिति ॥ ७४ ॥ (४४१) मूलार्थ- वास्तवमें सम्यग्दर्शन आदि आत्माके स्वाभाविक गुण है ||७४॥ विवेचन- उचित प्रवृत्तिके कारणरूप जो सम्यग्दर्शन आदि हैं वे आत्माके वास्तवमें स्वाभाविक गुण है । आत्मत्वभावमय हैं (अतः मिथ्यात्व आदिसे महत्त्वके हैं)।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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