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________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३९१ उचित विनय करे और कोलकी अपेक्षा करके रहनेकी जगहकी प्रमार्जना आदि करे। अपने वलको न छीपावे (धर्मकार्यमें पुरुषार्थ करे )। सब जगह शक्तिपूर्वक व्यवहार करे। अपने हितकारी वस्तुका चिंतन करे तथा गुरुकी भाज्ञाको अपने पर किया गया उपकार माने । संवरमें अतिचार आदि दोषका निवारण करे, छकाय जीवकी रक्षा करे तथा शुद्धभाव रखे। विनय आदि विधिसे स्वाध्याय करे, शास्त्रोक मरण 'आदिका विचार करे तथा यतिजनोके पास उपदेश सुने। यदि चारित्रके भाव साधुमें हो तो यह उपदेश देनेकी क्या आवश्यकता है । कहते हैं चारित्रिणां तस्साधनानुष्ठानविषयस्तूपदेशः, प्रतिपात्यसौ, कर्म वैचित्र्यादिति ॥६६॥ (४३३) मूलार्थ-उपदेश चारित्र परिणामको साधनेवाला अनुष्ठान है, क्योंकि कर्मकी विचित्रतासे चारित्र परिणाम मिट सकते हैं अतः उपदेश आवश्यक है ॥६६॥ . . विवेचन-चारित्रिणां- चारित्रके परिणाम जिनको हुए है, तत्साधन- चारित्र परिणामको साधन करनेवाले, अनुष्ठान- गुरुकुलवास आदि, विषयः- जिसके विषयमें ये अनुष्ठान बताना है, उपदेश:-उपदेष्टा या धर्मप्रवर्तकके वचनरूप जो शास्त्रमें कहे हुए हैं, प्रतिपाती-पतनशील, कर्मवैचित्र्यांव-कर्मकी विचित्रतांके कारण।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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