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________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३७५ मूलार्थ-भगवानने ऐसा कहा है इस प्रकारके अराधना योगसे (स्मरण होता है) ॥ ४२ ॥ विवेचन-जब शास्त्रवचनोंका विचार करते हैं तथा मनन करते है तब भगवानने इस बारेमें ऐसा कहा है ऐसा विचार - स्वभाविक रूपसे आता है । उससे शास्त्र व उसके प्रणेताके प्रति अनुकूल भाव जागृत होते हैं और इससे भगवानका स्मरण होता है। ' एवं च प्रायो भगवत एव चेतसि " समवस्थानमिति ॥४३॥ (४१०) मूलार्थ-इस प्रकार प्राय. भगवानकी ही ठीक प्रकारसे चित्तमें स्थापना होती है ॥४३॥ विवचन-ऐसे वहुमानपूर्वक भगवानका स्मरण करनेसे हृदयमें भगवानकी ही स्थापना होती है। क्रिया करते समय चित्त क्रियामें ही स्थिर होता है अन्यथा वह भावक्रिया न होकर केवल द्रव्य क्रिया रहती है अतः इस प्रकार कुछ समयको छोड़ देनेसे भगवानका स्मरण प्रायः ही होता है, सर्व कालमें नहीं। क्रियाके समय चित्त उसमें ही रखे। भगवानका कहा करनेसे क्या सिद्ध होता है ? कहते हैं तदाज्ञाराधनाच तद्भक्तिरेवेति ॥४४॥ (४११) . मूलार्थ-भगवानकी आज्ञाकी आराधनासे भगवानकी ही भक्ति होती है ॥४४॥ विवेचन-भगवानकी आज्ञका अनुसरण करना यही भगवान
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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