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________________ ३६८ : धर्मविन्दु . . . . . :. , जिन्होंने चारित्र ग्रहण किया है वे छद्मस्थ हैं अतः अज्ञानतासे अनुचित मार्गमें प्रवृत्ति होने पर भी अतत्त्वको तत्त्व माननेकी अज्ञानता तो उनमें नहीं होती। उनका स्वभाव सम्यग्दर्शनमय होता हैं। उसमें न्यूनता नहीं आती, वह उत्कृष्ट है । अतः स्वभाव उत्कृष्ट होनेसे अतत्त्वको तत्त्व नहीं मानते। गौतम आदि महामुनिकी तरह छमस्थ होनेसे उस प्रकारके अतिवाधक कर्म रहित होनेसे सम्यग्दर्शन आदिरूप अपने स्वभावको न्यून नहीं होने देते । उनका स्वभाव न्यून न होकर वृद्धि पाता है। क्योंकि तत्त्वोके साथ उनका स्वभाव तन्मय हो गया है अंतः वह उत्कर्ष ही पाता है। स्वभावकी उत्कर्षता किससे होती है । वह कहते है• मार्गानुसारित्वादिति ॥२२॥ (३८९). मूलार्थ-मार्गानुसारितासे (स्वभावकी उच्चता होती है)। विवेचन-ज्ञान, दर्शन व चारित्र आदिके सम्यग् मार्गके अनुसार चलनेसे आत्मा उच्च स्वभाववाला होता है। मुक्तिमार्गको अनुसरण करनेसे स्वभाव उच्चताको प्राप्त होता है। . रत्नत्रयके मार्गका अनुसरण किससे होता है । कहते है तथा-रुचिस्वभावत्वादिति ।।२३।। (३९०). र मूलार्थ-उसमें रुचिका स्वभाव होनेसे ॥२३॥ - विवेचन-मोक्ष मार्गको अनुसरण करनेके लिये रत्नत्रयके आराधनरूप मार्गमे रुचि व श्रद्धा होनेसे मार्गानुसारिता प्राप्त होती,
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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