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________________ ३६४ : धर्मविन्दु उचित अनुष्ठानसे कर्मक्षय कैसे होता है। कहते हैंउदग्रविवेकमावाद रत्नत्रयाराधनादिति॥१४॥ (३८१) मूलार्थ-उत्कट विवेकसे तीन रत्नोंका आराधन होता है, उससे कर्मक्षय होता है ॥१४॥ विवेचन-विवेक-उचित व अनुचितका यथार्थ भेद समाना, करने योग्य व न करने योग्यका भेद जानना, उदग-उन्फट, पूर्णरूपसे खिला हुआ। ___ जिसमे यह विवेक पूर्ण जाग्रत हैं व खिला हुआ है। वह ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप रत्नत्रयका आराधन ठीक तरहसे कर सका है। रत्नत्रयके आरावनसे ही कर्मका भय हो सकता है। तात्पर्य यह कि उचित अनुष्ठानके आरंभ करनेसे ही नत्रयका आराधक उत्कृष्ट, विवेक उत्पन्न होता है और नत्रयके आराधनसे ही कर्मक्षय होता है अतः विवेकको उत्पन्न करनेवाला उचित अनुष्ठान कर्मक्षयका प्रधान कारण है । यदि उचित अनुष्ठान न हो तो क्या फल होता है। कहते है अननुष्टानमन्यदकामनिर्जराङ्गमुक्त विपर्ययादिति ॥१५॥ (३८२) मूलार्थ-पूर्वोक्तसे विपरीत अनुष्ठान अनुष्ठान ही नहीं, वह अकाम निर्जराका अंग है। विवेचन-अननुष्ठान-अनुष्ठान ही नहीं होता, अन्यत्-उचित अनुष्ठानसे भिन्न, अकामनिर्जराङ्ग-अकाम, विना इच्छाके बैल आदिकी तरह, जो कर्मनिर्जरा होती है उसका अंग होता है-विना
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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