SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३६१ मूलार्थ-पूर्वोक्त गुणों सहित नबसे अधिक पूर्वधारी अच्छे शिष्य प्राप्त करके, अन्य साध्य कार्यके अभाव में, शरीर सामर्थ्य होने पर, सद्वीर्याचारके सेवनसे, प्रमादको जीतनेके लिये योग्य समय होने पर तथा भोगकी वृद्धि के लिये आज्ञाके 'प्रमाणसे अनशनकी तरह निरपेक्ष यतिधर्म अंगीकार करे वह अति उत्तम है ॥११॥ विवेचन-नवादिपूर्वधरस्य-नवें पूर्वकी तीसरी वस्तुसे लेकर दश पूर्वसे कुछ कम ज्ञानवाला, यथोदितगुणस्यापि-तत्र 'कल्या. णाशयस्ते' सूत्रमें कहे हुए जो सापेक्ष यतिधर्म पालनके गुण हैं वे सब निरपेक्ष यतिधर्म पालन करनेवालेमें हो, साधुशिष्यनिष्पत्तीअच्छे शिष्य होने पर आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, तथा गणाधिपति ऐसे पांच योग्यतावाले साधु उसके शिष्य हों, साध्यान्तराभावत-निरपेक्षः यतिधर्मके योग्य शरीरवल तथा मनोबल होना चाहिये और सामर्थ्य होनेका विश्वास सामर्थ्यके उपयोगसे पैदा हुआ हो । वह बल वज्रऋषमनाराच संहननरूप शरीरका बंधारण हो और वज्रकी दीवारके जैसी धीरज हो-इससे काय व मनका महान् सामर्थ्य हो, सद्वीर्याचारासेवनेन-अच्छे यतिधर्मके विषयमें प्रवृत्ति करनेसे सुंदर वीर्याचार अर्थात् अपने सामर्थ्य व वलको नहीं छिपावे ऐसे वीर्याचारके सेवनसे, तथा प्रमादजयाय-और निरपेक्ष यतिधर्मको अंगीकार करके निद्रादि प्रमादको हरावे, प्रमादको हरानेके लिये, सम्यगुचितसमये-शास्त्रोक्त नतिके अनुसार तप, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और वल-इन चांच प्रकारको तुलनासे अपनी आत्माको
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy