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________________ यतिधर्म विशेष देशना विधि : ३५९ विवेचन-परोपकार करनेसे सब प्रकारसे अपने व दूसरोके शरीर व मन संबंधी सब कष्टोंका अत होता है अत. परोपकार ही उत्तम है। तथा-संतानप्रवृत्तः ॥८॥ (३७२) मूलार्थ-और उससे संतान प्रवृत्ति होती है |८|| विवेचन-परोपकार करनेसे शिष्य, प्रशिष्यके प्रवाहरूप संतानकी उत्पत्ति होती है। तथा-योगत्रयस्याप्युदग्रफलभावादिति ॥९॥ (३७६) मूलार्थ-और तीनों योगोंका वडा फल मिलता है इस हेतुसे ॥९॥ विवेचन-दूसरोंको धर्मके उच्च ज्ञानका बोध देने जैसा उत्तम मार्ग इस जगत्में एक भी नहीं है। उसमें तीनों ही योग-मन, 'वचन व काया जैसे शुद्ध व्यापारमें प्रवृत्त होते हैं वैसे किसी भी दूसरे अनुष्ठानमें नहीं । अतः परोपकार करनेसे तीनो योगोंसे उत्तम कर्म होनेसे उत्तम फलकी प्राप्ति होती है। इससे अनेक कौकी निर्जरा होती है । अन्य किसी भी प्रकारसे ऐसा कर्मनिर्जराका फल नहीं मिलता । अतः ज्ञानशक्तिवाला दूसरोंको सद्बोध देवे । ज्ञानप्राप्ति उत्तम है पर ज्ञानदान अधिक उत्तम है। तथा-निरपेक्षध चितस्यापि तत्प्रतिपत्तिकाले परपरार्थसिद्धौ तदन्यसंपादकाभावे प्रतिपत्तिप्रति षेधाचेति ॥१०॥ (३७७)
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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