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________________ ३४८ : धर्मादिन्दु - अनुसार या शास्त्रका अनुसरण करके प्रवृत्ति व निवृत्ति करे । शास्त्र है ही उनका गुरु 1 तथा - अल्पोपधित्वमिति ॥९०॥ (३५८) मूलार्थ - उपकरण (सामग्री) कम रखे ||१०|| विवेचन - सापेक्ष यतिधर्मको पालन करनेवालेकी अपेक्षा उसके उपकरण व साधनसामग्री, जैसे - वस्त्र - पात्र आदि बहुत कम होने चाहिये । सामानका प्रकार अन्य विशेष शास्त्र से जानना चाहिये । तथा - निष्प्रतिकर्मशरीरतेति ॥ ९१ ॥ (३५९) मूलार्थ और प्रतीकार रहितता से शरीर धारण करे ॥९१॥ विवेचन - बिना किसी प्रतीकारके रोग मिटाने आदिके साघन किये विना, शरीरको उनकी सामान्य प्रकृतिस्थ अवस्थामें रहने देवे । जैसी स्थिति हो वैसी ही रहे । अपवादत्याग इति ॥९२॥ (३६०) मूलार्थ - अपवाद मार्गका त्याग करे ||१२|| विवेचन - इस कारण से अपवाद मार्गका त्याग करना चाहिये। सापेक्ष यतिधर्मवाला उत्सर्ग मार्ग पर चले और न चल सके तो ज्यादा गुण व कम दोषवाला अपवाद मार्ग ग्रहण करे पर निरपेक्ष - यतिधर्म में जीव जाय तो भी अपवाद मार्ग ग्रहण नहीं करे । केवल गुणवाला उत्सर्ग पथका ही आचरण करे । वह केवल उत्कृष्ट - रास्ते पर चले । न्यून व अपवाद मार्ग पर सापेक्षवानकी तरह नहीं ।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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