SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 372
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३६ : धर्मविन्दु मूलार्थ-और दूसरों पर अनुग्रह हो ऐमी क्रिया न करे।६३। विवेचन-अपने व पराये सब पर करुणा करके ज्ञान दान आदि उपकार करना । लोगोंको उपदेश देना । इससे श्रोताको लाभ होता है तथा वक्ताको भी करुणा व अनुग्रह द्वारा उपदेश देने के कारण लाभ होता है। तथा-गुणदोषनिरूपणमिति ॥६४।। (३३२) सूलार्थ और सर क्रियाओंमें गुणदोषका ध्यान रखना।६।। विवेचन-जो जो भी कार्य करे उस सबमें गुण तथा दोषका विवेचन करके उस कार्यको करे, इससे दोष टालकर केवल गुण करनेवाली क्रिया ही की जायगी, जिससे बहुत लाभ होगा । विहार आदि सब कामोंमे ऐसा करे । तथा-बहुगुणे प्रवृत्तिरिति ॥६५।। (३३३) .. मूलाथै-और अधिक गुणवाली क्रिया प्रवृत्ति करें।।१५।। विवेचन-जो कार्य बहुत गुणोंवाला अथवा केवल गुणोंवाला हो उस कार्यमें प्रवृत्ति करें। अन्य कार्य जिसमे दोष अधिक हो व गुण कम हो वह कदापि न करे।। तथा-क्षान्तिर्मादवमाजवमलोभतंति॥६६॥ (३३४) मूलार्थ-क्षमा, मृदुता, सरलता और संतोप रखना ॥६६॥ विवेचन-चारो कषाय-क्रोध, माया व लोभका त्याग करके उनके शत्रुरूप क्षमा, मृदुता, सरलता व सतोषको अपनाना चाहिये। ये चारों गुण साधुधर्मके मूल भूमिका रूप है, अतः इन्हें निरंतर हृदयमें रखना। ,
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy