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________________ यतिधर्म देशना विधि : ३०९ भावकी प्रतिकूलतासे, किसी तप आदिका कोई अनुष्ठान करना संभव न हो, बहिश्वार:- त्याग। ___ जो अनुष्ठान किसी भी हेतुसे करना अशक्य हो उसे त्याग करे ऐसेको प्रारंभ ही न करे । उसका परिणाम शुभ नहीं होता। इंदयमें क्लेश होता है और साध्यवस्तुकी सिद्धि नहीं होती। इससे शक्य कार्यमें भी बाधा आती है अतः अपने सामर्थ्यका विचार करके प्रत्येक धर्मकार्यका प्रारंभ करे । तथा अस्थानाभाषणमिति ॥२०॥ (३८९) मूलार्थ-नवौलनेके स्थान पर (अस्थानमें) बोलना नहीं। विवेचन-अस्थाने-जहां बोलनेका उपयोग न हो या बोलना भयोग्य हो। - उचित वस्तु ही वोले तथा योग्य स्थान पर ही बोले । अस्थान पर न बोले । न बोलने योग्य स्थल पर किसी भी कार्यके वारेमें कहना नहीं। अयोग्य स्थल पर बोलनेसे भाषासमितिकी शुद्धि नहीं रहती। सत्य, प्रिय व हितकर बोले, अन्य नहीं । तथा-स्खलितप्रतिपत्तिरिति ॥२१॥ (२९०) मूलार्थ-और दोप स्खलन)का प्रायश्चित्त करे ॥२१॥ विवेचन-स्खलितस्य-किसी भी कारणसे प्रमादके कारण किसी भी मूलगुण आदिके आचारमें विराधना हुइ हो तो, प्रतिप्रचिः उसका शत्रोक्त प्रायश्चित्त करना ।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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