SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 336
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०० : धर्मविन्दु विवेचन- गुरोः- दीक्षा देनेवाला आचार्य, अन्तेवासितायावज्जीव गिप्यभावसे रहना। दीक्षा देनेवाले आचार्य जो उसके गुरु है उनके साथ आजन्म शिष्यभाव रखकर रहे । शिष्यभावसे रहनेका महान् फल है। वह कहते हैं'नाणस्स होइ भागी, थिरयरओ देसणे चरित्ते य। धण्णा आवकहाए, गुरुकुलवासं न मुञ्चन्ति ॥ १५४ ॥" - -जो शिष्य मृत्यु होने तक (आजन्म) गुरुके साथ रहते हैं वे धन्य पुरुष ज्ञान प्राप्त करते हैं तथा दर्शन व चारित्रमें पूर्णतः स्थिर होते हैं। तथा- तद्भक्तिवहुमानाविति ॥ ४॥ (२७३) - मूलार्थ- और गुरुकी भक्ति तथा बहुमान करे ॥४॥ - विवेचन- भक्ति बाह्य आचरणसे तथा बहुमान हृदयसे होता है । गुरुके साथ रहे तथा अन्न-पान आदि लाकर देना, पैर धोना आदि सेवा करे तथा हृदयसे आदर व प्रेम रखे । विनय व वैयावच्च करना चाहिये। तथा- सदाज्ञाकरणमिति ॥५॥ (२७४) मूलार्थ- निरंतर गुरुक आज्ञाका पालन करे ॥५|| विवेचन- सर्वदा, हर समय गुरु जो भी आज्ञा दे, चाहे रात्रि हो, चाहे दिवस उसका तत्काल पालन करना चाहिये । तथा- विधिना प्रवृत्तिरिति ॥३| (२७५) Ahc
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy